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________________ कङ्कपर्वा १८८८ कङ्काल कङ्कपर्वा-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप । । श० च० । प्रयोगानुसार इस उद्भिद् द्वारा कंककङ्क पक्ष-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कंकपक्षी का पर। पक्षी विनष्ट होता है। कङ्कपुरीष-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कंक' नामक पक्षी | कङ्कशाय-संज्ञा पु० [सं० पु.] कुत्ता। कुक्कुर । का पाखाना । कंकबिष्ठा । यह व्रणदारण-फोड़े | श०मा० । को फोड़नेवाला है । सुः सू० ३६ अ । कङ्का-संज्ञा स्त्री० [सं०स्त्री०] (१)गोशीर्ष नामक चंदन । कङ्कपृष्ठी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार की पद्म गन्ध । उत्पलगन्धिक । यथामछली। "गोशीर्ष चन्दनं कृष्ण ताम्रमुत्पलगन्धिकम् कङ्कभोजन-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कहू । कोह । कङ्का ।” श० मा०। अजुन वृक्ष । (२) कँगनी। ककमुख-सज्ञा पुं० [सं० पु०; की० ] एक प्रकारकी | कङ्काल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] त्वक् एवं मांसादि सँड़सी जि.ससे चिकित्सक किसी के शरीर में रहित तथा स्वस्थान पर अवस्थित देह का अस्थि. चुभे हुये काँटे आदि निकालता है। सदंश । समुदाय । यथासँड़सी । हे. च० । "शल्यं प्रगृह्योद्धरते च त्वङ् मांसादिरहितः स्वस्थानस्थित: शरीरायस्मात् यन्त्रेष्धतः कंकमुखं प्रधानम्" । सु. सू० | स्थिचय: कंकालसंज्ञो भवति ।" (चरक) ७ अ०। त्वङ् मांसरहित समुदित शरीरास्थिसङ्घात । नोट-एक प्रकार का यन्त्र जिससे अस्थि में (अ०टी०भ०) प्रविष्ट शल्य वा तीर प्रभृति निकाला जाता है। पर्या०--करङ्कः । अस्थिपञ्जरः (वै०), शरीइस यन्त्र का अग्रभाग कंक पक्षी के मुख जैसा रास्थि, कङ्कालः-सं०। होता है। मोर की प्राकृति के कील द्वारा ककमुख ठठरी, ढाँचा-हिं । मजमू उल इ.ज़ाम, हैकल श्रावद्ध रहता है । सुश्रुत में अन्यान्य यन्त्रों की अज़म्मी, इ.जाम-१०। स्केलेटन Skeletonअपेक्षा इस यन्त्र का उत्कर्ष वर्णित है । कंकमुख अं०। यन्त्र सहज में ही भीतर घुस शल्य ग्रहणपूर्वक कङ्काल वा अस्थिपंजर देह का सार होता है। निकल पाता है और सर्व स्थान पर उपयोगी त्वचा और मांस आदि के विनष्ट होने पर भी होने से सकल यन्त्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझा अस्थि का नाश नहीं होता। इसी से कहा जाता है। गया हैकङ्कर-संज्ञा पुं॰ [सं० श्री.] एक प्रकार का तक्र । "अभ्यन्तरं गतैः सारैर्यथा तिष्ठन्ति भूरुहाः । कार । छाछ । मठा । हे० च० । अस्थिसारैस्तथा देहा ध्रियन्ते देहिनां ध्रुवम् ।। वि० [सं०नि०] कुत्सित । खराब । तस्माच्चिर विनष्टेषु त्वङ्मांसेषु शरीरिणाम् । कङ्कराल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] पिस्ता का पेड़ । अस्थीनि न विनश्यन्ति साराण्येतानि देहिनाम्॥ वै० निघ० । पेस्ता गाछ (बं०)। मांसान्यत्र निबद्धानि शिराभिः नाभिस्तथा। कङ्करोल-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) Alangi- अस्थीन्यालम्बनं कृत्वा न शीर्यन्तेपतन्तिवा॥" um hexape talum ढेरा | अंकोल । (सुश्रुत) निकोचक वृक्ष । (२) एक प्रकार की फल लता अर्थात् जैसे वृक्ष अभ्यन्तरस्थ सार के सहारे ककोड़ा । खेखसा । काँकरोल (बं०)। स्थिर रहता है, वैसे ही अस्थिसार के सहारे मनुष्य कङ्कलोड य-संज्ञा पु० [सं० क्ली०] चिञ्चोटकमूल । चंच देह धारण करता है। शरीरस्थ त्वचा, मांस प्रभृति की जड़ । अङ्कलोड्य । राज.। चेचको । के नष्ट होते भी अस्थि का विनाश नहीं होता। चिञ्चोड़मूल (बं०)। यह गुरु, अजीर्णकारी अस्थि समस्त देह का सार है। उसमें शिरा और और शीतल होता है। स्नायु द्वारा मांस बद्ध रहता है। अस्थि के अवकङ्कशत्रु - संज्ञा पु० [सं० पु. ] पिठवन । पृश्निपर्णी लम्बन से ही मांस शीर्ण वा पतित नहीं होता।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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