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________________ ककड़ी छोटी ककड़ी - शीतल, मधुर, रुचिकारक, कास और पीनस को उत्पन्न करनेवाली, पाचक, श्रम और पित्त नाशक तथा श्राध्मान और वायु को शमन करनेवाली है । एर्वारुकं तु मधुरं रुच्यं रूक्षं च शीतलम् । तृप्तिकृदूग्राहकं प्रोक्तमत्यन्त वातकारकम् ।। गुरु वातज्वर कफकारकं तापहारकम् । पित्तं मूर्च्छा मूत्रकृच्छ्रं नाशयेदिति कीर्तितम् ॥ १८७४ ककड़ी - मधुर, रुचिकारक, रूखी, शीतल, तृप्तिकारक, ग्राहक - मलरोधक, श्रत्यन्त वादी, भारी, वातज्वर कारक, कफकारक एवं तापनाशक है तथा पित्त, मूर्च्छा और मूत्रकृच्छ, रोग का नाश करती है। भेदी विष्टभकारी चत्वभिष्यन्दी च मूत्रलम् । रक्तपित्तहरं चैव पक्कं स्यात्कफहारकं ॥ हृदांदीपनमित्युक्तं 'कैयदेव निघंटुके || (नि०शि० ) ककड़ी —-भेदक, विष्टंभकारक, अभिष्यन्दी, मूत्रल और रक्तपित्तनाशक है । पकी ककड़ी— कफनाशक, हृद्य और दीपन हैं । > श्ररण्यकर्कटी, वनजातकर्कटी (जंगली ककड़ी) ( बुनो काँकुड़ - बं० । राणतवसे - मरा० अरण्य कर्कटी चोष्णा रसे तिक्ताच भेदका । पाकेक ट्वी कफकृमीपित्त कंडूज्वरापहा ॥ (वै० निघ० ) वनककड़ी - गरम, तिक रसान्वित, भेदक, पाकमें कटु तथा कफ, कृमि, पित्त, कण्डू ( खुजली ) और ज्वर को दूर करनेवाली है । यूनानी मतानुसार गुण-दोष - प्रकृति - द्वितीय कक्षा वा द्वितीय कक्षांत में सर्द एवं तर है; क्योंकि यह अपेक्षाकृत अधिक जलांश और किंचित् पार्थिवांश से संघटित होतो हैं the I अलास्वादयुक्त ककड़ी बहुत शीतल होती है। हानिकर्त्ता - यह नफ़्फ़ाख अर्थात् श्राध्मानकारक है और वायु एवं कुलञ्ज ( उदरशूल ) उत्पन्न करती है तथा दीर्घपाकी भी है । यह शीतल प्रकृति को हानि पहुँचाती है । इससे बहुत कैस उत्पन्न होता है । यह श्रामाशय में शीघ्र विकृत हो जाती है। चिरकाल पर्यन्त दर्पन द्रव्यकेविना ककड़ी सेवन करते रहने से ज्वर ककड़ी ने लगता है जो कठिनतापूर्वक पीछा छोड़ता है । दर्पन - शीत प्रकृति को लवण, अजवायन, कालीमिर्च, मवेज़ मुनक्का और सौंफ तथा उष्ण प्रकृति को सिकंजबीन और थोड़ा सौंफ । प्रतिनिधि — खीरा और लम्बा - कद्द - लौकी | मात्रा - इच्छानुसार । गुण-कर्म-प्रयोग - पकी ककड़ी सर्वोत्कृष्ट होती है । क्योंकि यह अधिक सूक्ष्म-लतीफ तथा पतली-रक़ीक़ होती हैं और इसमें जलीयता श्रधिक होती है। अपने शीत गुण— कैफियत के कारण उष्णत्व एवं पित्त को शमन करती है। विशेषतः परिपक्क एवं अम्लयुक्त ककड़ी। किन्तु श्रयप्रशांतकारी होने के साथ ही तत्द्भुव दोष - ख़िल्त विकारोन्मुख होता है । यह ज्वर उत्पन्न करने वाली है; क्योंकि यह रक्त में जलीयता की वृद्धि करती है। जिससे वह विकार क्षम हो जाता है । पकी ककड़ी अपेक्षाकृत शीघ्रतरविकृत हो जाती है । इससे पूर्व इस बात का उल्लेख किया जा चुका है, कि इसमें सूक्ष्मता और औदकत्व अधिक होता है । अस्तु, यह कच्ची ककड़ी की अपेक्षा शीघ्र प्रतिक्रिया को ग्रहण करती-मुतासिर होती हैं, इसके विरुद्ध कच्ची ककड़ी की श्राता सांद्रीभूत होती है और जबतक वह कच्ची रहती है, उसके घटक अवयवों में उसका सैलान नहीं होता, इसलिए यह अन्य प्रभावोत्पादकों मुवस्सि - रात से प्रभावित नहीं होती और अपने शैत्यकारी गुणके होते हुये सुरभित होने के कारण सूँघने से श्रौम्यजन्य मूर्च्छा को लाभ पहुँचाती है और पिपासा शांत करती है | यह वस्ति वा मूत्राशय के अनुकूल है; क्योंकि यह वस्ति को प्रगाढ़ मलों और सितादि से शून्य करती है । इसमें प्रवर्तनकारिणी शक्ति भी विद्यमान होती है; क्योंकि इसमें प्रशालिनी और नैर्मल्यकारिणी शक्ति होती है । इसके अतिरिक्त इसमें श्राद्धता की भी प्रचुर मात्रा होती है । श्रार्द्रता स्वयमेव मूत्रप्रणालियों की श्रीर गतिवान् होती है। इसमें कोष्ठमृदुताकारिणी शक्तिभी विद्यमान है; क्योंकि श्रामाशयस्थ श्राहार को ककड़ी अपनी प्रचुर आद्रता के कारण श्रार्द्रीभूत करके फिसला देती है और अपने निर्मलीकरण एवं प्रक्षालन गुणके कारण द्रवों वा रंतुबतोंको श्रामाशयगत
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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