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________________ ककड़ी १८२ कचरी और किसी ने फूट ककड़ी लिखा है । हमने इसे कई कारणों से कचरी ही माना है, जिसका शंशाण्डुली एक भेद हैं | देखो " कचरी” । इनके सिवा वैद्यक निघण्टु श्ररण्यकर्कटी-जंगलीककड़ी का भी उल्लेख पाया जाता है। चारव्य भाषा के श्रीषध शब्द कोषों में इसका समानार्थी क़िस्सा उल् af वा क़िस्साए शब्द देखने में श्राता है, जिसका अर्थ नफ़ाइसुल्लुगात में फूट उल्लि खित है | परंतु मख़्ज़न के अनुसार यह इन्द्रायन है. और यह ठीक भी मालूम पड़ता है, क्योंकि फूट ककड़ी स्वयंभू नहीं, अपितु उसकी खेती होती है अस्तु, उसे जंगलो ककड़ो कहना ठीक नहीं । हाँ ! श्ररण्यकर्कटी को क़िस्साए बर्री कह सकते हैं, किंतु वह यूनानी ग्रन्थकारों के मत के विरुद्ध पड़ता है। सुश्रुत में श्वेतकर्कटक संज्ञा से सफेद ककड़ी वा बालकांकडी का उल्लेख मिलता है । यथा" श्वेतकर्कटकं चेव प्रातस्तं पयसा पिबेत् । " ( उ ५८ ० ) अर्थात् सफ़ेद ककड़ी को दूध के साथ प्रातः काल पीवे ( इससे मूत्र के दोष और वीर्य के दोष भी दूर होते हैं) पुष वा कूष्माण्ड वर्ग ( N. O. Cucurbitacece.) औषध निर्माण - कुशाद्यघृत ( च० द० ), कुशावलेह ( च० द० ) इत्यादि । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार कर्कटी वा ग्रीष्मकर्कटी - ( निघंटुकार के मत से छोटा बड़ा भेद से यह दो प्रकार की होती है ) कर्कटी मधुरा शीता त्वक्तिक्ता कफपित्तजित् । रक्तदोषकरा पक्का मूत्ररोधातिं नाशनी ॥ मूत्रावरोधशमनं बहुमूत्रकारि कृच्छ्राश्मरी प्रशमनं - विन्ति पित्तम् । वान्ति श्रमघ्नं बहुदाहनिवारि रुच्यं । श्लेष्मापहं लघु च कर्केटिकाफलं स्यात् ॥ ( रा ० नि० मूलकादि ७ व० ) ककड़ी - मधुर और शीतल होती है । इसकाछिलका का थोर कफपित्तनाशक होता है । पकी ककड़ी - रक्तदोषकारक और मूत्ररोध को दूर करने वाली है ककड़ी का फल - मूत्रावरोध को दूर करने ककड़ी वाला, अत्यन्त मूत्रजनक, मूत्रकृच्छू और अश्मरी का निवारण करनेवाला, पित्तनाशक, रुचिकारी, कफनाशक, हलका और वमन, श्रम तथा अत्यन्त दाह का निवारण करनेवाला है। स्वादुः गुरुः अजीर्णकरी शीतला च । तत्पफलं दाहच्छर्दि तृष्णा क्लान्तिघ्नं च ॥ राज० ३प० ) ककड़ी - स्वादु, भारी, शीतल और अजीर्ण को करनेवाली है । पकी ककड़ी-दाह, वमन, तृषा और क्वान्ति को दूर करती है। कर्कटी मधुरा रुच्या शीता लध्वी च मूत्रला । त्वचायां कटुका तिक्ता पाचकाग्नि प्रदीपनी ॥ अवृष्या ग्राहिणी प्रोक्ता मूत्रदोषाश्मरी हरा । मूत्रकृच्छ्रमिं दाहं श्रम व विनाशयेत् ॥ सा पक्का रक्त दोषस्य कारिण्युष्णा बलप्रदा । इति प्रथमा । द्वितीया त्रपुषी कर्कटी (तौंहे काँकडी ) कर्कटी) रुच्या मधुरा वातकारिणी । शीता मूत्रप्रदा गुर्व्वी कफकृद्दाह नाशिनी ॥ वमिं पित्तं भ्रमं मूत्रकृच्छ्र ं मूत्राश्मरी हरेत् ॥ (वै० निघ० ) ककड़ी - मधुर, शीतल, रुचिजनक, हलकी और मूत्रकारक है। इसकी त्वचा - चरपरी, कडुई पाचक, अग्निप्रदीपक, अवृष्य एवं ग्राहिणी है तथा मूत्रदोष (मूत्ररोध ), पथरी, मूत्रकृच्छ, 'वमन, दाह और श्रम का नाश करती है। वही पकी ककड़ी - रुधिरविकारकारक, गरम और बलकारक है । पक्का स्यात्पित्तकारी च वह्निदा तृविनाशनी । श्रमदाहहराप्रोक्ता "केयदेव निघण्टके" ॥ (नि० शि० ) पकी ककड़ी - पित्तकारक, जठराग्निवद्ध क प्यास, श्रम और दाह को हरण करनेवाली है । ऐव चिम् वालं पित्तं हरं शीतं विद्यात्पकमथोऽन्यथा । " ( वा० सू० ६ ० )
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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