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________________ ओषधि ग १८४४ ध्यान में रखकर आचार्य सुश्रुत ने उनका नाम भेद किया है । ये अठारह प्रकार की कही गई हैं । जैसे - ( १ ) श्रजगरी, (२) श्वेत कापोती, (३) कृष्णकापोती, (४) गोनसी, (५) वाराही, (६) कन्या, ( ७ ) छत्रा, ( ८ ) श्रतिच्छत्रा, ( ) करेणु, १०) श्रजा ( ११ ) चक्रका ( १२ ) श्रादित्यपर्णी, (१३) ब्रह्मसुवचला, (१४) श्रावणी, (१५) महाश्रावणी, ( १६ ) गोलोमी, (१७) अजलो की और (१८) महावेगोत्रती । इनके लक्षण इस प्रकार हैं ( १ ) अजगरो - यह कपिल वर्ण की विचित्र मण्डलों से युक्त, सर्पाभा और पंचपत्रयुक होती है । यह परिमाण में पाँच मुट्ठी प्रमाण की होती है । (२) श्वेत कापती - यह पत्रशून्य, सोने की प्रभा प्रभा की, सर्पाकार और प्रान्तदेश में म होती है। इसकी जड़ दो अंगुल की होती है। (३) कृष्ण कापोती - यह तीरयुक्र, रोइयों से व्याप्त, मृदु, रस और रूप में ईख के तुल्य होती है । । यह कृष्णमण्डल (४) गोनसी - इसमें केवल दो ही पत्ते होते हैं । जड़ इसकी रुण होती युक्त, अरत्नि परिमित और गोनसाकृति ( गो नासिकाकृति) की होती है । ( ५ ) वाराही - सर्पाकार और कंदसंभव श्री संज्ञा है । (६) कन्या - मनोरम श्राकृति की, मोरपंखी के सदृश बारह पत्तों से युक्र, कन्दोपन्न और सुवर्ण की तरह पीले दूध की ओषधि की 'कन्या' संज्ञा है। ( ७ ) छत्रा - एक पत्रयुक्त, महावीर्य और अंजन की तरह कृष्णवर्ण की श्रोषधि का नाम 'छत्रा' है। (८) अतिच्छत्रा - कंद- संभव और रक्षोभय विनाशक श्रधि की 'प्रतिच्छत्रा' संज्ञा है । छत्रा और प्रतिच्छत्रा ये दोनों जरा-मृत्यु निवारिणी और आकार-प्रकार में श्वेत कापोती के तुल्य होती हैं । ओषधि गए. ( ६ ) करेणु - -यह श्रोषधि अतिशय क्षीरयुक होती है, जिसमें हस्तिकर्ण पलास की तरह दो पत्ते होते हैं । इसकी जड़ हाथी की आकृति जैसी होती है । ( १० अजा - इस महौषधि के चुप होते हैं, जिसनें दूध होता है और यह शंख, कुंद और चंद्रमा की तरह पांडुरश्वेत वर्ण की होती है । इसकी जड़ बकरी के धन की प्राकृति की होती है। ( ११ ) चक्रका - यह श्वेत वर्ण की विचित्र पुष्पयुक्त होती है । इस ओषधि का खुप काकादनी की तरह होता है । यह जरा-मृत्यु का निवारण करनेवाली है । (१२) आदित्यनी - यह प्रशस्त मूलयुक्र ( मूलिनी) होती है और इसमें अत्यन्त कोमल सुन्दर वर्ण के पाँच पत्ते होते हैं । जिधर जिधर को सूरज घूमते जाते हैं, यह भी सदा उसी र को घूमती जाती हैं । (१३) ब्रह्म सुवर्चला - यह सोने के रंग की are और पद्मिनीतुल्य होती है, जो पानी के किनारे चारों ओर चक्कर लगाती है। (१४) श्रावणी - इसका क्षुप अरत्नि श्रर्थात् मुष्टिका प्रमाण का होता है जिसमें दो अंगुल प्रमाण के पत्ते लगते हैं। इसका फूल नीलोत्पल के आकार का और फल अंजन के वर्ण का अर्थात् काले रंग का होता है। यह सोने के रंग की और वीरयुक्त होती है । (१५) महाश्र ( वरणीयह श्रावणी की भाँति श्रन्यान्य गुण युक्र और पांडु वर्ण की होती है। = ( १६ तथा १७ ) गोलोमी और अजलोमीये दोनों कन्द्र-संभव और रोमरा होती हैं । (१८) महावेगोवती - यह हंसपादी की तरह मूलसमुद्भव और विच्छिन्न पत्रयुक्र श्रथवा सभी भाँति रूपाकृति में शंखपुष्पी की तरह होती है । यह अतिशय वेगयुक्र और साँप की केंचुली की तरह होती है । उत्पत्तिस्थान एवं काल इनमें से श्रादित्यपर्णी बसंतकाल में होती है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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