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________________ ओषरण(-णि). १८४२ ओषधि यथा, "येनत्वांखनते ब्रह्मा येनेन्द्रो ये न केशवः । ते नाहत्वांखनिष्यामि सिद्धिं कुरु महौषधि" । रा०नि०, धन्व नि० परिशिष्टे । __ ग्रहण-विधि-शास्त्र में किसी प्रोषधिके ग्रहण करने में जैसो आज्ञा हो उसो के अनुसार उसे ग्रहण करना उचित है । जहाँ शास्त्र ने मौन धारण किया हो, वहाँ परिभाषा के अनुसार कार्य करना चाहिए । कहा है-"निर्देशः श्रूयते तन्त्रे द्रव्याणां यत्र यादृशः । तादृशः संविधातव्य शास्त्राभावे प्रसि . रासायनिक संयोग से नए पदार्थ बन जाते हैं। (Oxidation.) ओषण(-णि)-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कटुकरस । | चरपरा रस । माल । हे. च०। ओषणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) एक प्रकार का शाक । पुरातिशाक । पुरतिशक-बं०। गुण-कफ-वायुनाशक । राज. । (२) पुनर्नवा । गदहपुरना । ओषध-संज्ञा स्त्री॰ [सं० की. ] औषध । दवा।। ओषधि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) पौधे जो एकबार फलकर सूख जाते हैं। पौधे, जो फल पकने तक ही रहते हैं। फलपाकांतवृक्षादि । जैसे, धान, गेहूँ, जव, कलाय इत्यादि । हे० च० । (२) द्रव्य । नोट-आयुर्वेद के अनुसार औषधीय द्रव्य दो प्रकार के होते हैं (१) स्थावर और (२) जंगम । इनमें स्थावर के पुनः चार भेद होते हैं। (१) वनस्पति, (२) वृक्ष, (३) वीरुत् और (४) ओषधि । इनमें से जिनमें बिना फूल आए फल लगें, वे वनस्पति कहलाते हैं। पुष्पफलवान् को वृक्ष, प्रतान विस्तार करनेवाला को लता वा । वीरुत् और फल-पाकनिष्ठावाले को अर्थात् जो एकही बार प.ल कर सूख जाने है "ओषधि" कहते हैं । जङ्गम-द्रव्य भी चार प्रकार के होते हैं। (१) जरायुज अर्थात् जरायु से उत्पन्न होनेवाले जैसे, पशु, मनुष्य और व्यालादि। (२) अंडज अर्थात् अंडे से पैदा होनेवाले। जैसे, पती, साँप और सरीसृप प्रभृति । (३) स्वेदज अर्थात्, स्वेद (पसीना ) से उत्पन्न होनेवाले । जैसे, कृमि, कीट, जूं. खटमल इत्यादि। (४) उद्भिज अर्थात् भूमि फोड़ कर निकलनेवाले । जैसे, मेढक आदि। (सु. सू० १ अ.)। (३) वनस्पति । जड़ी बूटी, जो दवा में काम आएँ। ओषधि-खनन-मंत्र-श्रोषधियों के खनने का मंत्र । जैसे, "येनत्वां खनते ब्रह्मा येनत्वां खनते भृगुः येनेन्द्रो येन वरुणोद्यपचक्रमके रावः ॥ ते नाहंत्वां खनिष्यामिसिद्धिं कुरु महौषधिः"। किसोकिसी ग्रन्थ में इस प्रकार का भी पाठ मिलता है। साधारण-विधि-साधारणतः धन्व (मरुभूमि) और जांगल देश के लक्षणों से युक्त देश में उत्पन्न हुई, विकारशून्य, कोटादिरहित, वीर्य युक ओषधि उत्तर दिशा एवं पवित्र स्थान से ग्रहण करनी चाहिये । यथा-"धन्व साधारणे देशे मृदावुत्तरतः शुचौ । अवैकृतं नानाक्रान्तं सवीर्य ग्राह्यमौषधम्" ॥ निषिद्धौषधि-देवतालय, बामी, कुएँ के पास, रास्ते और श्मशान में उत्पन्न हुई तथा असनय बे मौसम और वृक्षों के छाया में उत्पन्न हुई, उचित परिणाम से कम अथवा अधिक दीर्च और पुरानी तथा जल, अग्नि, और कीड़ों से विकृत श्रोषधि फलदायक नहीं होती। स्थान-भेद से गुण-भेद-विन्ध्य आदि पर्वत आग्नेय गुणवाले और हिमालयादि सौम्य गुणवाले हैं। अतएव उनमें उत्पन्न होनेवाली ओषधियाँ भी यथाक्रम आग्नेय और सौम्य गुणवालो होती हैं। चिकित्सा-काल में इन सभी बातों पर ध्यान रखकर ओषधि का व्यवहार करना चाहिए। __ कालभेद से ओषधि-ग्रहणसमस्त कार्यों के लिए रस युक्त ओषधियाँ शरद् ऋतु में ग्रहण करनी चाहिए, परन्तु वमन और विरेचन की ओषधियाँ वसंत ऋतु के अन्त में ग्रहण करनी चाहिए। यथा-"शरद्यखिल कर्मार्थं ग्राह्यं सरस मौषधम् । विरेक वमनार्थं च वसन्तान्ते समाहरेत्"। विज्ञ वैट का कर्तव्य है कि ओषधियों के मूल शिशिर ऋतु में, पत्र ग्रीष्म ऋतु में, छाल बर्षा
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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