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________________ श्रक-तम्बोल श्रोलक-तम्बोल-दे० "उलट कंबल” । ओल-मरुथु - [ ता० ] किंजल ( मरा० ) । ओला - संज्ञा पुं० [सं० उपल ] ( १ ) गिरते हुये मेह के जमे हुये गोले । पत्थर, बिनौरी, बिनौली, इन्द्रोपल - हिं० । बर्षोपल - सं० । श्रम० । तग्रग़ ज़ा. लः, संगचः ( फ्रा० ) । जलीद, बरूदगुराब, गर्बान, इव्नइन् आम - ( २ ) । कन्ज़ुलू लुग़ात में "हब्बुल-ग़माम" लिखा है। हेल (Hail ) ( श्रं० ) । १८४० वर्णन - इन गोलों के बीच में बर्फ की कड़ी गुठली सी होती है, जिसके ऊपर मुलायम बर्फ़ की तह होती है । ये कई आकार के गिरते हैं। इनके गिरने का समय प्रायः शिशिर और वसन्त है । टिप्पणी - मुजरिंबात फिरंगी में फ़ारसी भाषा में लिखा है कि जब वा वायु में जाते हैं, तब सर्दी की प्रतिक्रिया द्वारा सांद्र होकर मेह के बूँदों के रूप में परिणत होजाते हैं । यदि गिरते समय उसमें सर्दी अधिक हुई तो वे ही ठिठुर कर श्रोले बन जाते हैं.......... इत्यादि । प्रकृति - शीतल और तर, कभी (बिल) । इससे गर्मी तथा ख़ुश्की भी प्रगट होती है। गुणधर्म - प्रायः सभी गुणों में बर्फ़ के समान हैं और उससे अधिक गुरु हैं । यह बूढ़ों को असा त्म्य है । इसका पानी उष्णता जनित दंतशूल के लिए लाभकारी है । यदि कंठ में जोंक चिपट जाय, तो उसके लिए भी गुणकारी है। घेघा के रोग में इसे कपड़े पर फैलाकर रोगी की गर्दन पर बाँधने से उपकार होता है । घेघा की सूजन उतर जाती है । किंतु, इससे अत्यधिक वेदना एवं प्रदाह होता है । जले हुए स्थान पर मलने से दर्द और प्रदाह निवृत्त होती है । श्रोला लेकर प्रथम उसे ज़मीन पर डाल दें, जिसमें वह गलकर पानी होजाय । पुनः उस स्थान की मिट्टी लेकर फोड़े पर मलें, तो दर्द एवं प्रदाह दूर होता है । यदि उस मिट्टी की गोली बनाकर सुखा लें और श्रावश्यकता होने पर उसको पानी में भिगोकर लेप करें, तो भी प्रभाव होता है । एक पुस्तक में लिखा है कि यदि श्रोले की मिट्टी पीसकर जलने के कारण ओलेत (ली) किर उत्पन्न हुये चत पर छिड़कें, तो दुर्गन्धित मांस को दूर कर देती है | और शुद्ध मांसाङ्क र उत्पन्न करती है । इसके लिये कोई भी अन्य वस्तु इससे अधिक गुणकारी नहीं। किंतु यह ध्यान रहे, कि अधिक मांस न जमजाय । जले हुये क्षत को श्रोले के पानी से धोना भी हितकारी है । इसके खाने ने खाँसी पैदा होती है, विशेषकर उस मनुष्य को, जिसके श्रामाशय में शैत्य का प्राधान्य होता है । उष्ण प्रकृति के पट्ठों और पाचन शक्ति को बल प्रदान करता है । पिपासाजनक भी है। (२) मिस्री के बने हुये लड्डू, जिन्हें गर्मी के दिनों में घोलकर पिया जाता है । श्रथवा सफ़ेद शर्करा को जल में घोल कर अंडे की सफेदी या दूध 'की भाग से साफ़ करके तीन बार पकाकर गोले बना लेते हैं । इन्हें ही श्रोले के लड्डू कहते हैं | कंद मुकर्रर ( फ़ा० ) । अब्लूज - ( अ )। प्रकृति - प्रथम कक्षा में उष्ण है। किसी-किसी का ऐसा विचार है, कि यह खाँड़ से अधिक उष्ण है। गुण- खाँड़ से अधिक ग़लीज़ (गाढ़ा) है। खाँसी, . वक्षःशूल और दमेको लाभकारी है । इससे खुलकर मलोत्सर्ग होता है । यह गर्भाशय और श्राँत की सर्दी का निवारण करता है । लाइव - [ olive ] दे० " प्रालि " ओलिया (ए) एडर - [ "अलियाण्डर" । ओलियातियूम - [ यू०] मु० श्र० । ० oleander ] दे० ओलिंदश्रोलिंद अट्ट ओलीबेनम् - [ बेनम्” । एक प्रकार का कड़ा । ओलियातूम - [ यू०] अंगूर की बेM I FOT झाड़ | [ सं . ] गु ंजा | बुंघचो | . ० olibanum ] दे० " श्रालि लसून - [ यू०] सेवार । शैवाल | काई । ओलुत चन्दल -[ बं० ] नाट का बच्छनाग । ओलेन ( ली ) किरैत - ( मरा० ] कलफ़नाथ- द० । कालोमेघ - बं० । यवतिक्का-सं० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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