SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 817
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वत्थ नील मेहीको अश्वत्थ की छाल द्वारा प्रस्तुत क्वाथ | पान कराएँ । यथा-- "नालमेहिनमश्यत्य कषायं वा पाययेत्" (चि० ११ १०)। (२) वाजीकरणार्थ अश्वत्थ फलादि-- अश्वत्थ फल, मल त्वक् एवं शुग ( पत्रमुकुल) इनका काथ प्रस्तुत कर मधु एवं शर्करा का प्रक्षेप। देकर पिलाने से चटकवत् मैथुन शक्रि की वृद्धि होती है। यथा "अश्वत्थ फल मूलत्वक कछुङ्गारुिद्धं पयोनरः । पीत्वा स शर्करा क्षौद'कुलिङ्गव हृष्यति ॥" (चि० २६ अ०) चक्रदत्त-(१)वमनमें अश्वत्थ स्वक-अश्वत्थ वृक्ष की सस्ती हुई छाल को जलाकर उक्र अंगार को जल में डाल रखें। इस जल के पीने से वमन की निवृत्ति होती है। यथा-"अश्वस्थ वल्कलं शुष्क दवा निर्धापितं जले। तत्तीयपानमाण छर्दिजयत्ति दुस्तराम् ।" (छदि चि०) (२) अग्निदग्धप्रण में प्रश्वस्य बल्कल . अश्वत्थ वृक्ष की सखी छाल के बारीक चूर्ण के अग्नि से जल जाने के कारण उत्पन्न हुए ग्रण पर छिड़कन से क्षत अच्छा हो जाता है । यथा-- "अश्वत्थस्य विशुष्कतकाल कृतं चूण तथा गुण्डनात् ।” (प्रण शाथ-शि.) प्रश्वत्थपत्र--अश्वत्थपत्र द्वारा प्रस्तुत चोंगाको तैलाकर उसे नप्त अंगारों से पूर्ण कर कण के ऊपर ( कुछ दूरी पर ) रवखें । अंगारों द्वारातप्त होकर जो तैल चाँगे से चुए, उससे कण पूरण करने से तत्काल कण शूल की शांति होती है। यथा-- "अश्वस्थ पत्र खल्लम्बा विधाय बहुपत्रकम् । तैलाक्रमगार पूर्ण विदध्याच्छ वणीपार । यतैलं च्यवने तस्मात् स्वल्लादंगारत पितात् । तत्प्राप्त श्रवणस्रोतः सद्यो गृहाति वेदनाम् । (कर्ण राग-चि.) . (४) शिशु के मुख पाक में अश्वस्थ स्वक् । एवं पत्र-पालक के मुख पकने पर अश्वस्थ की छाल तथा पत्र को मधु के साथ भली प्रकार पीस कर उस पर प्रलेप करें। यथा"अश्वत्थरवग्दल कोद्रेमुखपाके प्रलेपनम् ।" (वालरोग-चि.) बकम्य अश्वत्थत्यक "पञ्चवल्कल"के अवयवों में से एकहै । योनि रोग पञ्चवल्कल का क्वाथएवं विसर्प में उसके प्रलेप का बहुशः प्रयोग करने से ये लाभप्रद सिद्ध हुए। चरक में अश्वस्थ को "मूत्रसंग्रहण वर्ग" में पाठ पाया है। इसके अतिरिक्त अश्वत्थ स्वक् का सोम रोग में प्रयोग किया जा सकता है। सनिपातज्वर में अश्वत्थपत्र-स्वरस को विशेष प्रौषधों के अनुपान रूप से व्यवहार किया जाता। सुश्रत के न्यग्रोधा. दिगण में अश्वत्थ का पाठ पाया है (सू. ३८ श्र०)। चरक सिद्धिस्थान में प्रतिसार में प्रयुक्त यवागू पाका द्रव्यान्तर के साथ अश्वस्थ शुग व्यवहृत हुअा है-"मसूराश्वत्थशुगेन यवागूः स्याजले शृता ।' अविकसित पत्रमुकुल को शुग कहते हैं (“शुग इत्यविकसित पत्र मुकुलम्"--- चक्रसंग्रह टीकायां शिवदासः)। यूनानी मतानुसार-प्रकृति-पत्र तथा स्वक २ कक्षा में शीतल व रूक्ष किसी किसी के मत से उडण हैं। हानिकर्ता-पारमाशय तथा प्रान्त्र को । दर्पघ्न- लवण तथा घी । प्रतिनिधि-विलायक रूप से वट पत्र । मात्रा--छाल, १ मिस्काल तक(४॥ मा०)। प्रधान-कम--वण एवं शोध लयका । गुण, कर्म, प्रयोग--देखो--पञ्चाङ्गवर्णनांतर्गत 1 अश्वत्थपत्र तथा पत्र-मुकुल. पीपल के पत्र और कोंपल विरेचन रूप से प्रयोग में पाते हैं (एन्स ली व वाइट) । स्वरोगों में भी इनका उपयोग होता है (ई० मे० मे०)। पीपल के कोमल पल्लव को दुग्ध में क्वचित For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy