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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भैरणी भरणी भरणी arani-सं० स्त्री०, हिं० संज्ञा स्त्री० (१) जंगली मादा मैंस, भैंस (A female wild | buffalo)। (२) सुद्राग्निमन्य । रा० . नि० २०६। (३) भरनी (गी), अरोथ (यु), गणि (नि) पारि, टेकार--हिं० । संस्कृत पर्याय गणिकारिका, अग्निमन्यः, श्रीपर्ण, कर्णिका, जया, तेजोमन्थः, हविर्मन्धः, ज्योतिष्कः, पावकः, अरणिः, वह्निमधः, मथनः (र), जयः ( भा० ), गिरिकर्णिका (द्रव्याभि०), पावकारणिः (शब्द मा०), अग्निमयन:, तर्कारी, वैजयन्तिका, वैजयन्ती, अरणीकेतुः, श्रीपर्णी, नादेयी, विजया, अनम्ता, नदीजा, हरिमन्यः । श्रन्वर्थ-संज्ञा-'अनुत्वा", "गन्धपुष्पा" और "गन्धपत्रा'', गणिरी, घ(मा)ग्गान्त, भूत. भैरवी, गणियारी-बं०। प्रेम्ना इण्टेनिफोलिया (Premna integrifolia, linn.) प्रेमना स्पाइनोसा (Premna spinosa, Roxb.) मुखय (श्री), नेलोचेछु --ता। घेवु-नेशि, पिन-नेलि, चिरिनेल्लु-चेट्ट, पिनुपा-नेल्लि, नेविचेह-ते, ते। अप्पेल-मल । तमिले. तम्गी, नरुवन, ऐरणा-कना०, कर० । गयेन्दारी, गैयदारी--को० । ऐरणा, नरवेल, टोकला, चामारी, ( थोर ऐरण-सुदाग्निमंथ ) मह० । अरणी, मोठी परणी, ऐरणमूल-गुल गयाबात-उड़ि। गमिधारी--अप० । बर्च-ग0 अगिवथ- उत्। गिनेरी-पा०। गणियरी--प्रासा० । सिहिन्मिदि, कर्णिका-सिं० । अरनी, ऐरणमूल बम्ब० । टंगभैग्-पीलबर। क्षद्राग्निमन्य के पर्यायहस्वगशिकारिका, तपनः, विजया, गणिकारिका, मरणिः, लघुमन्धः, तेजोवृषः, तनुस्वचा, (रा० नि. व. )। कोट गणियारी-बं। नरवेल, टाकली, नरयेलर-मह। तबी-का० । प्रेमना सिरेटिफोलिया ( Premna se iistiiolia Linn.), witte ta velorgfte Clerodendron phlomoides ) ०। देखोखुदाग्निमन्ध । किसी किसीने संगकुप्पी : Olerodendron Inerme, Geartn.) को समाग्मिमन्य प्रार छोटी अरशी लिखा है । देखो-संगकुप्पी, पी ( कुण्डली-सं० । बनजोई-० । इसम्धारी५०)। वानस्पतिक-वर्णन-इसके वृहत् क्षप वा स्ववृक्ष होते हैं । वृक्षा..१२ हस्तउच्च और बहुशाख होते हैं। कांड बघु, बहुशाख, शाखाएँ प्रायः भूमिलुण्ठित ( भूमि के निकट से निकली हुई), प्रसारित होती है जिनसे मून उत्पन होते हैं। कांड-त्वक अपर से ग्ल निराम एवं सचिकण, भीतर से हस्तिदंतवत् प्रतिशुभ्र, लघु, अल्पाघात से टूट आने वाले होते हैं। पत्र सम्सुखवी, वृन्तयुक, हृदयाकार, पत्राग्र सूचम (अनीदार न्यूनकोणीय) पत्रप्रांत करपत्र-शस्त्राकार सखंड (दाँलेदार); पत्रोदर मसूण व चित्रण, पत्रपृष्ठ शिरान्वित एवं चिकण, १.६ इंच लम्बा और १-३ इंच चौड़ा, पत्र में एक प्रकार की तीन गंध होती है, पत्रवृन्त पत्र की लम्बाई से चौथाई दीर्घ । पुष्प सशाख, पुष्पदण्ड पर स्थित, पुष्पदंडकी प्रत्येक शाखा ३.४ पुष्प धारण करती है, सविन्यास, सीमान्तिक वा कक्षीय, प्रारम्भिक विभाग सम्मुखवर्ती और द्विशाख, पुष्प अतिशुद्र, बहुसंख्यक, पीत वा हरिदाभशुभ्रवर्ण, मिसित दल, दल-अंग प्रधानतः २ भाग युक जिनमें से एकभाग तीनशमें ईषत् खरित व दीर्घ, अपरोस अखंड व द्वस्त्र । पुंकेशर ४, जिनमें २ वृहत् तथा २ : शुद्र, श्वेताभ, पुष्पोपरि दीर्घ पुकेशर में कृष्ण वर्स के परागकोष स्पष्टतया टिगोचर होते हैं । निर्गुण्डी वर्ग (N.O. Verbenacea) उत्पत्ति-स्थान-यह मारतवर्ष के अनेक प्रोतों विशेषतः समुद्रतट पर होती है। उत्तरी भारत, तिब्बत, काशमीर, बम्बई से मनका ! पर्यन्त, सिलहट और लंका । मोट-बुद्ध वृहद् भेद से अग्निमय दो | प्रकार का होता है। दोनों प्रकारके अग्निमंथ गुण में समान होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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