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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भलाष्टका ४१७ अमृतेश्वररमा (२) घृत पिष्टित गुग्गुल १६ प०, काथार्थ द्रोण गो दुग्ध मिलाएँ । पुनः त्रिफला, चंदन, गुरी १०० ५०, दशमूल १०० ५०, पाठा, मूर्चा, के शर, खस, तेजपात, इलायचे. कुष्ठ, अगर, बदियाला, श्वेत बड़ियाला-मूल, एरण्डमूल,प्रत्येक तगर, मुलेही, मजी इन्हें प्राधा आधा पल १०प०, सास्थि (गुठली युक्र) हरीतकी १००, लेकर कल्क बना सविधि तेल पकाले । भा० म. बहेड़ा १००, श्रामला ४००, पाकार्थ जल ३ द्रोण २ भा० वातरो० चिo। ( ४८ सेर) इसमें गुग्गल को एक पोटली में अमृतिः amritih-सं० स्त्री० जलपात्र विशेष । बाँध दोलायंत्र की विधि से पकाएँ । जब ४८ शराब करणम् amriti-karanam -सं. शेष रहे तब इसी क्वाथ में त्रिफला, निसोथमल, की विधि -अभ्रक के बराबर घी लेकर दोनों त्रिकुटा, दंतीमूल, गिलोय, असगन्ध, वायविडा, को लोहे के पात्र में पकाएँ। जब घी सूख जाए तेजपत्र, दारचीनी, छोटी इलायची, नागकेशर, तब उतार कर अभ्रक को सब काम में बतें'। गुण्डनृण प्रत्येक १.१ प० का चूर्ण मिला स्निग्ध योचि०। पात्र में रक्खें । मात्रा-८ मा०। इसे उज्या जल अमृतेन्द्ररस: amritendra-rasah.सं. पुं. से सेवन करना चाहिए। रस.र० व्रण शोथ सिद्ध पारव १ पल, त्रिफला १ पल, शुद्ध गंधक चि०। १२ तो०, ताम्रभस्म ४ तो०, लोह भस्म ४ तो०, अमृताष्टकः amritashralah सं० पु., बच्छनाग तो सबको मिलाकर गुडची, काला को पित्तज्वर में प्रयुक्र कषाय । गिलोय, धतूरा, भाँग, त्रिकटा, महाराष्ट्री (मरेठी), इन्द्रजौ, नीम की छाल, पटोलपत्र, कुटकी, सोंठ, भांगरा, अदरख, ब्राझी, हुलहुल, जैत, काली चन्दन और मोथा इनके द्वारा निर्मित कपाय को तुलसी, धतूरा, (दूसरीबार), भांगर, (३ पिप्पली चूर्ण युक्र सेवन करने से पित्त तथा कफ बार ) और बच्छनाग इनके रस से क्रम से ज्वर का नाश होता है। चक्र० द. चि०।। पृथक् पृथक् एक एक दिन भावना दें। पुनः भूग अमृतासङ्गम् amritasangam-सं० ली. प्रमाण गोलियाँ बना कर रक्खें। खर्परिका तुस्थ, खपरिया, खर्पर । तत्पर्याय-कर्प गुण ... सन्निपात, भयानक ज्वर और मन्दाग्नि रिका तुत्थं, अञ्जन (हे)। मद। में चित्रक और अदरख के साथ दें। यह उचित ममतासङ्गमः amritasanga mah-सं०प० । अनुपानों के साथ देने से रोग मात्र को एवं खर्परी तुस्थ । तूंते-घं० । तूतिया-हिं० | मोर चत वलि और पलित को नष्ट करता है। र० यो -म० । वै० निवः। सा०। अमृताम् amritāhvam--संक्ली० (१) अमृत- | अमतेशरसः amritesha-rasah-सं० पु. फल, नासपाती । (Pyrus communis) पारद भस्म, अभ्रक भस्म, कान्तलौह भस्म, मद व.६। (२) खबूजा । मद० व० ६ ।। बच्छनाग, सोनामाखी और शिलाजीत प्रत्येक अमृताहयतैलम् amritāhvaya-tailan-सं० समान भाग लेकर बारीक चूर्ण करें। मात्रा क्रो० वातरक में प्रयुक तैल । जैसे-गिलोय, . १ रत्ती । गुण-इसके सेवन्से वृद्धता दूर होकर मधुक, लघु पञ्चमूल, पुनर्नवा, रास्ना, एरण्डमूल, । श्रायु की वृद्धि होती और शरीर की पुष्टि होती जीवनीयगण की औषधे, इन्हें १-१ सौ पल लें, है। इसके उपर असगंध-मूल-चूर्ण , भा०, धी बला ५०० पत्न, कोल (बदरी), खेल, उड़द, ७ भा०, गुड़ ८ भा० और पोपल ! भा० इन जो, कुलथी १-१ मादक (४-४ सेर ), छोटा | सबको मिलाकर मन्द मन्द अग्नि से पकाकर गम्भारीमूल-छाल शुष्क , द्रोण (१६ सेर ), लड्डू बनाकर खाना उचित है । रस. यो० सा०।. १०० द्रोण जल में विधिवत पचाएँ । जब ४ द्रोण अमतेश्वररस: amriteshvara-rasah-सं० जख शेष रहे तब इसमें , द्रोण तिल तेल और सोहागा १६ भा०,कालीमिर्च १२ मा०, ६३ For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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