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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा जिसका वर्णन दोसकरीस ने किया है, और । दितोय पाश्चात्य जो अफरीका और पाश्चात्य देश में उत्पन्न होता है । उक वनस्पति को प्राकृति, : पत्र, शाखा और पुष्प श्वेतपुष्यीय बाबूना कबीर के समान होते हैं, पर उसके ( अकरकरा के) पुर पीन वर्ण के होते हैं। इसी की जड़ को अकरकरा और फारसी में पर्वतीय तर्ख न । कहते हैं । हकोन अन्ताका का उक वर्णन बिलकुल । सत्य है। क्योंकि पश्चिमी अकरकरा वास्तव में स्पेनीय बावना की जड़ है जिसका वानस्पतिक नास एन्ग्रेभिस पाइरीयन(Authoumis Pr- ! thytm)अर्थात आग्नेय याना या स्पेनिश कमी- . माइल (Spanish Chanomit) अर्थात मोनीय बाधूना है। और इसी की जड़ हमारा : उपयुक्र अकरकरा है जिसका वर्णन हो रहा है। कोई कोई बच को हो अकरकरा कहते हैं। परन्तु अकरकरा और बच वस्तुनः दो भिन्न-भिन्न । तथा भुर्रादार होता है। इसको जहाँ से तोड़े वहीं से टूट जाती है। गंध-विशेष प्रकारकी । स्वाद-- इस जड़के खाने से गरमी मालूम होती है, चरपरी लगती और जिह्वा जलने लगती है, यही इसकी मुख्य परीक्षा है। इसको चबाने से मुंह से लालाखाच होने लगता है और सम्पूर्ण मुख एवं कंड में चुनचुनाहट और कांटे से चुभने मालूम होते हैं। इसकी जड़ भारी ( वज़नदार) श्रीर तोड़ने पर भीतर से सफ़ेद होती है। इसमें शीघ्र कीड़े लग जाया करते हैं। परोक्षा-अकरकरा अरण्य (जंगली)-कासनी की जड़क सहरा होता है; किन्तु यह (कासनी) तिक एवं काले रङ्ग की होती है। __ रसायनिक संगठन-इसमें 1-एक स्फटिकवत अल्कलॉइड ( नारीयसत्व ) पाकरकीन (Pyrethrine ), २--एक रेज़िन (राल) और ३--दो स्थायी ( Fixed Oils) तथा उड़नशील तैल होते हैं। प्रभाव-सशक लालानिस्सारक, प्रदाहजनक और कामोद्दीपक । औषध-निर्माणा-योगिक चूर्ण, वटिकाएँ और कल्क। (१) अकरकरा ४ भाग, इन्द्रायन २ भाग, नौसादर ३ भाग, कृष्णजीरक २ भाग, कुटकी ४ भाग और कालीमिर्च ४ भाग; इन सबको मिला चूर्ण प्रस्तुत करें। अपस्मार में इसको नस्य रूप से व्यवहार में लाएँ। (२)अकरकरा ४ भाग, जायफल ३ भाग; लोग २ भाग; दालचीनी ३ भाग; पिप्पलीमूल; केशर २ भाग, अफीम १ भाग; भंग ४ भाग; मुलेठी ४ भाग; मदार मूल त्वक् ५ भाग; वायविडङ्ग ३ भाग और शहद ५ भाग; सब को चूर्ण कर वटिका प्रस्तुत करें। मात्रा--पाधी से २॥ रत्ती। वानस्पतिक वर्णन-यह अरब और भारतवर्षकी प्रसिद्ध बृटी है ( यह बङ्गाल और मिश्र में भी उत्पन्न होती है)। इसके छोटे छोटे चुप चातुर्मास को पहिली वर्षा होते ही पर्वती भूमि में उत्पन्न होते हैं । इसको शाखाग, पत्र और पुष्प सफ़ेद : बाने के सदृश होते हैं, परन्तु डण्ठल पोली होती। है। गुजरात और महाराष्ट्र देश में इसकी डण्डी : का अचार और साग बनाते हैं। इसमें सोया के : सहरा बीज आते हैं। दालो रोंगटेदार और पृथवी पर फैली हुई होती है तथा एक जड़ में से . निकल कर कई होजाती है। उस डाली के ऊपर गोल गुरछेदार छत्री के प्रकार का, किन्तु बावने से विपरीत पीले रंग का फूल होता है। डाली खड़ी खड़ी और पुष्प--पटल ( Petas) सुनेद होते हैं । इसकी जड़ औषध कार्य में पाती है।। ये सीधे सीधे टुकड़े,जिन पर कोई रंशा नहीं लगा होना, ३-४ इंच अर्थात् एक वालिस्त लम्बे और प्राधे से पौन इंच मोटे बेलनाकार गोल होते हैं। ऊपर के किनारे पर प्रायः बे रङ्ग रोमों की एक ! चोटी सी होती है। वारा याग पूरार वर्ण का गुण-बच्चों के चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, संवेदन दंतोद्भेद, अतीसार, उदरशूल तथा वमन के लिए गुए दायक है। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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