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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्रकम् ४५४ अभ्रकम् तोरई, मूपकार्णी, जयासा. मछे छी, कलोंजी, और । तेलगी। कोई कोई ये योपधि विशेष कहते है-पंचांगुल का रस, टुटक, गुड़, सुहागा, मालती, सप्तपर्णी (सतवन ), नागवला, अति. चला, महाबला, मतावर, कौंच की जड़ का रस, गाजर (गर्जर), प्याज, लहसुन, उटंगण, अजर बेल, हिल मोचिका, दुद्धी, पाताल गरुड़ी, जटा. मांसी, दूध, दही, घृत, शहन, खाड़, धाय और पालंकिका। अभक को खरल में डालकर उपयुक्र श्राप धियो के रस में घोटें | जर सुख जाय तव भरने उपलों की प्राग में फ क दें। फिर भाग में से निकाल कर घाटे और अग्नि दें। इस प्रकार । प्रत्येक गोषधि के १६-१६ पुट देनी चाहिए। : जो योपधि रम योग्य हो उसका रस डाले और , क्याथ योग्य के क्वाथ की पुट दे। यह अभूक | भस्म निश्चन्द्र ( चमक रहित ) लाल होगा। । गुण--यह अमत के समान दिव्य रसायन । है और अनेक अनुपानों के संयोग से देह को । अजर अमर करता है। अतएव मनुष्य को इस । श्रेष्ट भस्म का सेवन करना चाहिए । सेवन करने । वाले को हजारों गुण करे यह समस्त रोगों का ! शत्रु प्रसिद्ध है। नोट-(१) अभूक भस्म के रंग के लाल | करने की विधि-नागवला, नागरमोथा, वट दुग्ध, हल्दी का पानी, मजीठका पानी इन समस्त का या एक एक का या केवल घटजटा भरोह के काढ़े की भावना दे तो गजपुट देनेसे रक्षण की भस्म होगी। अभ्रक में पुट देने के गुण---- श्रठारह पुट का अभक वातनाशक, छत्तीस का ! पित्तनाशक और ५४ का कफ, प्रमेह और सूजन का नाश करता है तथा अम्ल पिल और प्रामवातादि हस्ति रूप रोगों को मारने के लिए सिंह रूप है। सौ पुट के उपरांत अभूक बीज संज्ञा को प्राप्त होता है। सबीज अभूक वीर्य, पराक्रम तथा कांति का कारण है और देह को धारण । करता है । यह चीर स्वामी फा मत है। उक्त भस्मो के रसायनिक रूपसभी श्याम अभक अग्नि संयोग में आने पर ऊप्मिद होते रहते हैं । अग्नि देने पर कांति, लोह श्रीर स्फटिकम् धातुएँ अमिद होती हैं। उदपांशबत का यौगिक भी टूटकर ऊपमेत हो जाता है और जैसे जैसे उम्मेत बनता जाता है वैसे वैसे श्रभूक का वर्ण लाल होता चला जाता है। यदि इसके उक यौगिक में अंतर न आए तो अभुक का व लाल नहीं होता कई बार शैलिका का योगिक टूट जाता है और इसका ऊष्मजन कम हो जाता है और ऊ'म जन का स्थान कन्ज ले लेता है और आमजन का स्थान कजरत ले लेता है। उस अवस्था में अभक का वर्ण श्यामतायुक अरुण हो जाता है । जव शैल कालेत बन जाय तो इस योगिक का बिच्छेद नहीं होता । अन्त तक अभूक उसी ब्रण में बना रहता है। कभी कभी उदपारा वेन आम जन का संयोग पाकर पांशुजम का यौगिक तीचण द्वार में भी परिणत हो जाता है । यह रूप कासमई रस में भस्म बनाने पर ही देखा जाता है और अर्क दुग्धादि में बनाने पर पांशुज तीक्ष्ण क्षार नहीं बनता अभक के उक्र लोहकोन स्फटिकादि के ऊरिमद कइ रोगों में अत्यन्त लाभ करते हैं। और जब ज्वर किसी शारीरिक अंग की विकृति शोथ के कारण स्थिर रूप से बढ़ा रहता हो उस अवस्था में यह अभक अान्तरिक विकृन को दूर करने में शरीर की बड़ी सहायता करता है । (प्रा.वि. भा०१ सं० ७। श्वेत अभक का सलायह १-हिना सुख प्रारह तो० को रात्रि को पानी में तर करें । प्रातः उसका जुलाल लेकर ६ तो. धान्यकाभक को उस पानी के साथ यहां तक खरल करें कि उसकी चमक जाती रहे। फिर छोटी इलायचीका दाना, वशलोचन, मूमलीश्वेत प्रत्येक ३ तो० एक एक कर सम्मिलित करके खरल करते जाएँ । पुनः सम्पूर्ण श्रीषधि को चार पहर तक खूब घोटकर रल दें। मात्रा-१ मा० । गुण-उष्ण यकृद, निर्ब. For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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