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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अफ, सन्तान ४२३ इसकी उष्णता वहाँ ऐसी न होगी कि रूक्षता की वृद्धि कर मस्सो को कठिन बना सके; प्रत्युत उस सूक्ष्म उष्मा के कारण तलय्यिन ( मृदुता ), तहलील (त्रिलेयता ) और तस्खीन (गर्मी) प्राप्त होगी । ( 5 ) और अपनी तल्तीफ़ ( संशोधन वा द्रावण ), तहलील ( विलायन ) श्रीर इद्रा ( प्रवर्तन, रेचन ) के कारण विरों को लाभदायक है । ( 8 ) इसके क्वाथ का बाप स्वेद ( भफारा ) करने से काशूल प्रशमित होता है । क्योंकि यह वायु को लयकर्त्ता और श्लेम्मा को मृदु एवं लय करता है । और वैशिक दोषों को भी निकाल डालता है । (१०) चूँकि प्रसन्तीन के भीतर कडुग्राहट है । अतः यह उदर की कृमियों को मार डालता है । ( त०न० ) संक्षेप में यह बल्य, संकोचक, रोधोन्द्राटक, संकोचक, प्रवर्धक वा रेचक, ज्वरन, उदरकृमिनाशक, मस्तिष्कोत्तेजक और कीटाणुनाशक हैं । श्रामाशयाचसान, श्रध्मानजन्य पाचन विकार, श्रांत्रकृमि, परियाय-ज्वर निवारण हेतु श्लेम स्राव, रज:रोध, रजः स्राव, शिरोरोग यथा शिरः शूल, पक्षाघात, कम्पन, अपस्मार, सिर चकराना, मालीखोलिया इत्यादि तथा क रोगों और यकृत् एवं लोहा आदि रोगों में इसका व्यवहार होता है। एलोपैथिक वा डॉक्टरी मतानुसारप्रभाव - सतीन (पौधा) ति बल्य, सुगन्धित, श्रामाशय बलप्रद अर्थात् श्रग्निप्रदीपक, ज्वरत्न, कृमिघ्न ( श्रत्रस्थ ), मस्तिष्कोरोजक, रजः प्रवर्तक, अवरोधोद्घाटक, स्वेदक, पचननिवारक, और किञ्चिन् निद्राजनक है । (तैल) अधिक काल तक सेवन करने से यह निद्राजनक विष ( Narcotic poison ) है । उपयोग - आमाशय बल्य रूप से इसको आमाशय की निर्बलता के कारण उत्पन्न श्रजीर्ण एवं श्राध्मानजन्य श्रजीर्ण में देते हैं । कृमिघ्न रूप से इसकी केचु ( Round worms ) और सूती कीड़ों ( Thread worms ) के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफसन्तीन निःसारण हेतु व्यवहारमें लाते हैं । ज्वरघ्न रूप से इसको विषमज्वरों ( Intermittent ferers) में प्रयुक्र करते हैं। रजः प्रवर्तक रूप से इसको रज:रोध तथा कष्टरज में देते हैं । मस्तिष्कोत्तेजक रूप से इसको अपस्मार और मस्तिष्क नैत्रेय इत्यादि रोगो' में देते हैं । नोट -- श्रामाशय तथा श्रांत्र की प्रदाहावस्था में इसका उपयोग न करना चाहिए । सन्तीन को गरम सिरका में डुबोकर मोच आए हुए अथवा कुचल गए हुए स्थान की चारों ओर बाँधते हैं । श्रारोप निरोध के लिए भी इस पौधे के कुचल कर निकाले हुए रस को सिर में लगाते हैं। शिरोवेदना में शिर को तथा सचिवात और श्रमात में संधियों को पुत्रक विधि द्वारा सेंकते भी हैं। एब्सिन्थियम् तिक आमाशय बलप्रद है । यह चुधा की वृद्धि करता और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । श्रजीर्ण रोग में इसका उपयोग करते हैं । यह योषापस्मार (Hysteria). आक्षेप त्रिकार यथा अपस्मार, वात तान्त्रिक लोभ, वात तन्तुओं की निर्मलता ( वात नैर्बल्य ) में तथा मानसिक ांति में भी व्यवहृत होता है । कृमिघ्न प्रभाव के लिए इसके शीत कपाय की वस्ति देते हैं । कृमिनिस्सारक रूप से इस पौधे का तीच क्वाथ प्रयुक्र होता है। बालकों की शीतला में इसका मन्द क्वाथ देते हैं। स्वग् रोगों एवं दुष्ट यणों में टकोर रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है | ( इं० मे० मे० पृ० ८१ डी० नदकारणी कृत । पी० वी० एम० ). सिंकोना के दर्या फ्त से पूर्व विषमज्वरो में इसका अत्यधिक उपयोग होता था । वातसंस्थान पर इसका सशक्त प्रभाव होता है। शिरोशूल एवं इसके अन्य वात संबन्धी विकारों को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति से काश्मीर तथा लेक के यात्री भली प्रकार परिचित हैं। क्योंकि जब देश के उस विस्तृत भाग से जो उन पौधे से श्राच्छादित हैं, यात्रा करते हैं, तब उनको यह महान कष्ट सहन करना पड़ता है । ( वैड्स डिक्शनरी १ ० ३२४ पृ० ) For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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