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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रनार ३०१ अनार उस में मृचम अम्मा होती है जो कि मधुरता के लिप. अत्यावश्यक है। कब्ज़ का कारण यह है | कि सम्पूर्ण अनारों की प्रकृति में कब्ज अन्तर्नि. हित है जैसा कि जालीनूस ने इसकी व्याख्या । की है। इनके दानों को पका कर उसमें मधु मिलाकर . प्रलेप करने से कण शूल, दारिखस (अंगुन येहा) कुला ( मुँह आना), भामाशयस्थ क्षत और . सुदर घण के लिए उपयोगी है। क्योंकि उसमें कज (संकोच ) और कांतिकारिता होती है। शहद के साथ मिनिस करने से जिला अधिक हो जाता और कब्ज़ बढ़ जाता है। क्योंकि । मधु अपनी उपमाता के कारण संकोचकारिणी एवं . संग्राहकीय शति को शरीर के गम्भीर: भागों में प्रविष्ट करा देता है। खट्टे प्रनार में मीठे अनार की अपेक्षा अधिकतर रेचनी शक्रि है। यद्यपि दोनों रेचक है; क्योंकि धानों में कांतिकारियी शनि (क्रध्यत जिलाभू ) : पाई जाती है। तथापि खट्टे में रेचनो शनि के अधिक होने का कारण यह है कि इससे प्रांतों में ; कज़ हो जाता है जो इदार (प्रवर्तन) पर मुश- | रियन हाता है । इसके अतिरिक इसमें लजा (बाम) भी है। मी अनार में रेचन के कम होने का कारण यह है कि इसकी रसूक्त सूक्ष्म उमा । के साथ होती है जो कोष्मदकारिणी तथा रेचनी शनि से खाली नहीं होती। खटभिट्टा अनार प्रामायिक प्रदाह को लाभ । करता है। क्योंकि यह उसको सरदी पहुँचाता । एवं पित्तोमा को शांति प्रदान करता है। क्योंकि । खट्टे . अनार के समान इसमें सोभ - एवं तीक्ष्णता नहीं होती और न मी अनारके समान । इससे प्रामाशय में उफान पैदा होता है और न पित्त की अोर इसकी प्रवृत्ति ही होती है। अतएव यह वातावयवा को हानि नहीं पहुँचाता । खट्टा अनार अपनी स्तम्भिनीशक्रि तथा कषायपन के कारण कंट एवं वक्ष में कर्कशता उत्पन्न करता है और मीठा अभार इन दोनों अवयवों को कोमल करता है। चूंकि इसमें सूचम उष्मा के साथ रतूबत होती है ! इस हेतु से और अपने स्तम्भनसे यह पद को शक्रि प्रदान करता है और अपनी कांतिकारगी (जिला ) एवं मृदुकारिता के कारण कास को लाभ करता है। अमलसी ( अनार बेदाना) जिसकी गुठली म होती है, सर्वश्रेष्ठ है । अमलस वह जंगल है जिसमें कोई वृक्ष न उगा हो। सब तरह के अनार मूरी को लाभ करते हैं। क्योंकि यह रूह तथा हृदयकी प्रकृतिको समानता सम्पादित करते हैं और इसलिए भी कि ये हृदय को मलों से स्वच्छ करते हैं।नफो। मोठा अनार--रुधिर उत्पन्नकर्ता, शुर प्राहाररस उत्पश्नकर्ता, लघुश्राहार, श्राध्मानकर्ता, मलों को स्वच्छ कर्ता, उदर को मृदु करता तथा मूत्रकारक है और यकृत को शांति प्रदान करता, प्यास को शांत करता तथा कामोद्दीपन . करता एवं उरामांगों को बल प्रदान करता है। स्वगं युक्र इसका अर्क दस्ते को बन्; करता है। सम्पूर्ण कर्मों में विलायती अनार उतम है। ___अनार फज स्वक् भस्म कास को लाभ पहुँ. घाती है। . खट्टे अनार-वन प्रदाह, भामाशय की गर्मी एवं यकृतोप्मा को प्रशमन करता है तथा रक्त प्रकोप एवं वाप्प को दूर करता है। ज्वरजन्य अतिसार एवं श्मन को लाभप्रद है। यौन और शुष्क खर्ज को लाभ करता तथा व मार एवं गर्मी की मूर्छा को लाभप्रद है। खटमिट्टा अनार-इसके गुण मीठे अनार के समान है । बल्कि यह उससे अधिकतर प्रभाव शाली है। छिलका सहित इसके फल को कुचल कर निकाले हुए रम में शकरा मिलाकर पीने से पैशिक वमन तथा अतिसार, खुजली और यक्रॉन में लाभ होता है और यह भामाशय को बल प्रदान करता मोर हिका को नष्ट करता है। अनार का बीज-संकोचक, पाचक तथा पुधाजनक है और भामाशय को बल प्रदान - करना, पैसिक मवाद को प्रामाशय प्रभृति पर For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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