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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजलिनी १६४ अञ्जलिनी anjalini-सं० स्त्रो० लजालुका, Jinn.)-ले० कारखा उम्बर-मं । किगू Figue छुईमुई-हिं० । देखो-लजालु । वै० श०।। फ्रां०। फाइक्रस केरिका( Ficus carica, दो सेन्सिटिव प्लाण्ट (The sensitive Linn.) ले। फिग ( Fig) । plant)-इं०। अश्वस्थ वा वटवर्ग (अर्टिकेशिई) प्रअलिपुटः,-पुटं anjalipurah, putain, (N.O. Urticarea) -सं०पू०,क्ली०('The Cavity formedi उत्पत्ति स्थान-इसका मूल निवास स्थान by joining the hands together): फारस वा एशिया माइनर है । अब यह भारतवर्ष कर सम्पुट । अञ्जलि । में भी बहुत होता है । अरबिस्तान, अफगानिस्तान अक्षस,-सी anjas, si-सं०नि०, स्त्रो० ( Not : तुर्किस्तान और अफरीका तथा विलोचिस्तान और crooked, straight) सरल, सीधा । काश्मीर इसके मुख्य स्थान हैं। अञ्जस anjas-० अशुद्धतर, अत्यन्त अपवित्र : वानस्पतिक विवरण-अंजीर गूलर की ही (नजिस ), बहुत पलोदा | म० ज० । जाति का एक वृत है। इसमें स्थूल, गूदादार, अञ्जायना पेक्ट्रोरिस angina pectoris-इं० , खोखला, नासपाती की शकज का एक प्रावरणा हृच्छूल । (receptacle ) होता है जिसकी भीतरी अञ्जिवम् anjivan-सं० क्लो० प्रकर कामी। रुख पर सूक्ष्म फल समूह उत्पन्न होता है उक्त प्रावरण के सिरे पर एक चित्र होता है। अथः । सू०६।६। का० । वह प्रथम ( अपरिपकावस्था में ) हरा, अञ्जिष्ठः, छुः jishthab, shthuh-सं० । कठोर और चर्म सदृश होता है। कोई अस्त्र पु. ( 'The stuli) सूर्य । सुभामे पर उसमें से दुग्ध स्राव होता है। अञ्जीरः anjirah-स. पु०, का०, हिं०, संज्ञा : परिपक्वावस्था में वह मदु एवं रसपूर्ण हो जाता पु. यं०, द०, अंजीर को०, म०, गु० ।' तथा दुग्धीय रस शर्करा रस में परिणत हो मम्जुलं (-लः),काको दुम्बरिकाफलं, अंजीर (वृक्ष) जाता है। छिद्र घिरा हुआ एवं अनेक छिलकों -सं० । अंजीरी, गुलनार, खकार, बेरू, बेलू, । से आधरित होता है। उसके निकट तथा अंजीर अजीर । ई० मे० प्लां०, मेमो०। (काक)डुमुर, । के भीतर नरपुष्प स्थित होते हैं, किन्तु, प्रायः अञ्जीर, बड़ पेयारा गाछ,आँजीर-यं । भगवार, उनका अभाव होता है अथवा उनका पूर्णविकास काक, कोक, फेड, इजर, फाग, किम्रि, फगोरू, नहीं हुआ होता । ना पुष्प प्रावरण के भीतर फागू, फोग, स्वबारी, फेना, थपुर, जमीर, धूल, ___ कुछ दूरी पर स्थित होते हैं जहाँ वे परस्पर गुये दूधी, दहोलिया, फगूरी, फगारी (मेमो०)-पं० ।। हुए और डंठलयुक्र होते हैं, इनमें पंच पखड़ी फगवार-पश्तो० । अंजीर, इजर-अफगा।' युक्र पुष्पकोष और इयरेशीय खुकल (Stiफेम्बा-राज० । धीरा-म० प्र० । पेपरी, अजीर : gma) होता है। दिम्बाशय, जो साधारणतः -गु० । फगवार, थपुर-उ०मा० के मैदान । एक कोषीय होता है, परिपक्क होने पर एक (इ०० म०), अमीर-चम्ब० । शीमद-अत्ति, : सूक्ष्म, शुष्क कार गिरी में परिवर्तित हो जाता तेन यत्ति ताशीम यत्ति, तेने-अत्ति, अंजूस, है जिसे ही बीज ख़याल किया जाता है। (फार्मामांदी पातू-त० । शीम-अत्ति-मला। बैण्डनेड- कोग्राफिया )। करना०। शीमे-अलि-कना० । रट-अत्ति-का इसके लगाने के लिए कुछ चूना मिली हुई -सिं० । स-फान्-सी, तिम्बो-थान-दि, सिम्बो । मिट्टी चाहिए । लकड़ी इसकी पोलो होती है। सफान-सी-वर्मी । तीन, बल्स-अ० । सीडियम | इस के कलम फागुन में काटकर दूर दूर क्यारियों पॉमिफ़रम् ( Psiliun Pomifestum, ! में लगाए जाते हैं। क्यारियाँ पानी से खूब तर For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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