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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अखबार अजवार प्राभ्यन्तरिक उपयोग होता है । इसकी जड़ का ! फाथ (१० में १)। तो० से ३॥ तो की मात्रा में अत्यधिक रजःस्राय के लिए लाभदायी खयाल किया जाता है, (दुगरी)। अञ्जनी की छाल का चूर्ण सुगन्धित द्रव्यों, । यथा-अजवायन, ( काली मिर्च और जदयार प्रभति के चूर्ण के साथ मिलाकर इसे कपड़े में बाँधकर मोच पाने अधया कुचल जाने में इसका सेक करें अथवा इसे लेप के काम में लाएँ। (चि० आइमॉक)। डेंकटर पीटर के वर्णनानुसार अञ्जली पन । बेलगाँव ( दकन) में सूजाक के लिए बहुत । प्रसिद्ध है। इस हेतु इसको खरल में कुचलकर उबलते हुए जल में डाल इसका इन्फ्यूजन (शीत कपाय ) तय्यार करना चाहिए । अज्जबार) anjabara-अ० किसी २ ग्रंथ में अजवार) अजुबार और अञ्जिबार भी पाया है। अङ्गवार होज़र, बंदक-फा० । बु० म० । मिरोमती -सं०।३० मे० मे० । मचूटी, इन्द्राणी, केसर, कुयर,निसोमली, बीज बन्द-हिं० । मस्लून, बिलौरी अक्षयार-पं० । द्रोब-काश० । इन्द्रारू-सिंध । पॉलीगोनम् अविक्युलरी Polygonum Aviculare, to faszizi P. Bistorta Linu., पा० विविपरम P. riviparuin-ले० । नोटमास knot grass-इं० । फॉ० इं०। इं० म० मे० | ई० मे० प्लां० ।। मेमो० । रिनोवी अोइसी Renolice toise. ! aux-फ्रां०। पोलिगोनेशिई ( अमबार ) वर्ग . (N. 0. Polygonacego ) उत्पत्ति स्थान-उत्तरी एशिया और यूरोप । । वहीं से यह भारतवर्ष में लाया गया । फा. इं० ३ भा० । पश्चिमी हिमालय, काश्मीर से ! कुमायूँ तक, रावलपिण्डी और डेकन । ई० मे० प्लां० । इतिहास-सर्व प्रथम यूनानी ग्रन्थों में अंजुधार का वर्णन किया गया है । श्रस्तु, दासकरीदस ( Dioscorides ) और लारो ( Pliny) के ज़माने में यह रवापरोधक । मभेदनीय तथा मूत्रल प्रभाव हेतु उपयोग में श्राता था। जलनयुक्र प्रामाशयिक वेदना में इसके पत्र को स्थानीय रूप से प्रयोग में लाते थे और मूत्राशय एवं विसर्व संबन्धी व्यथा में इसका लेप करते थे। इसका रस तिजारी और चौथिया प्रभुति ज्वरों में, ज्वर चढ़ने से थोड़ी देर पहिले विशेषरूप से उपयोग में प्राता था। स्क्रियोनिअस (Scribonius) का कथन है, कि चूँ कि यह प्रत्येक स्थान में पाया जाता है इस लिए इसको पालिगोनोस ( Polygonos) कहते हैं। इब्नसीना तथा अन्य अरबी हकीम इसको असाउर्राई. तथा बर बात नाम से पुकारते हैं। इनके विचार से अम्बार शीतल एवं रूस है तथा वर्णन क्रम में वे इसके उन्हीं गुणों का उल्लेख करते हैं जिसका वर्णन यूनानियों ने सर्व प्रथम अपने ग्रंथों में किया । फारसी लेखक इसको हज़ार बन्दक कहते हैं । आयुर्वेदिक ग्रंथों में इसका कहीं भी वर्णन नहीं मिलता। हाँ! भारतवर्ष में हकीम लोग अभी इसको उन्हीं रोगों में वर्तते हैं जिनका ज़िकर दीसकरीस ने किया है। __वानस्पतिक विवरण- इसका वृक्ष प्रादमी के कद के समान होता है । मूल तन्तुमय, लम्बा अत्यन्त कठोर, कुछ कुछ कालीय; निम्न माग शाखी एवं सिरा साधारण, श्यामाभायुक्त रक एवं विपम होती है। प्रकाण्ड अनेक, प्रत्येक दिशा में फैला हुआ,माधारणतः दण्डवत पड़ा हुआ,(नस) बहशाखा युक्र, गोल, धारीदार अनेक प्रन्थियों पर पर्णसंयुक होता है। पत्र-एकातरीय अर्थात् विषमवर्ती, ई.ल युक्र, मुश्किलसे एक इंच लम्बा, श्रण्डाकार या बछ के प्राकारका,सम्पूर्ण (श्रखंड), अधिक कोणीय, एक नस से युक्र, किनारेके सिवा चिका, विभिन्न चौड़ाई वाला, पदार्थ अधिक चोपम, पण कुछ कुछ धूसर अथवा नीला और डंटल की ओर गावदुमी होता है । पुष्प श्वेत गंभीर क्र तथा हरित वण से चित्रित होता है। बीज-त्रिकोणाकार चमकीले और काले रंग के होते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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