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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजनम् २७६ अञ्जनम् है (ऐण्टि - विपरीत + मोनाक्स = उपदेष्टा, सन्यासी) जिसका अर्ध सन्यासी या साधु के विपरीत अर्थात् नष्ट करनेवाला है । कहा जाता है कि सन् १७६० ई० में बालरटेन नामी एक रासायनिक ने, जिसने कि सर्व प्रथम उक्र शुद्ध धातु के असली गुण-धर्म का वर्णन किया, इसके औषधीय गुणधर्म दक्ति करने के लिए इसे कुछ सन्यासियों को खिलाया । फलतः वे सब के सब इस विष द्वारा मरणासन्न हो गए। इसी | कारण इसका नाम ऐरिटमोनियम पड़ गया। ___ इतिहास-उपयुक्र वर्णनानुसार स्रोताजन : अर्थात् सुर्मा रूप से यह श्रौषध प्राचीन वैदिक काल से, यूनानी व रूमी चिकित्सकों को मालूम थी। अस्तु . हकीम दीस्करी दूस (Dioscori. des) यूनानीने स्टीमी नाम से तथा हकीम बली. नास रूमी ने स्टीबियम् नामसे इसका वर्णन किया है। इन दोनों ने इसको शोधक (एवेकेण्ट) अर्थात् । वामक तथा रेचक लिखा है और अबतक प्रायः । चिकित्सक इनके अनुयायी हैं। परन्तु, हकीम । बुकरात व हकीम जालीनूस ने इसमें संग्राही तथा मुकत्ता ( काटने छाँटने वाले ) गुण की विद्यमानता का भी वर्णन किया, पर उन्होंने इसका वाह्यरूप से ही उपयोग किया था। प्राचीन चिकित्सक इस धातु को प्रकृति में पाया जाने वाला यौगिक सुर्मा रूप से उपयोग में लाते थे । उनका यह विचार था कि सुर्मा ! (अंजन गन्धिद) गन्धक और पारद का यौगिक ! है और किसी किसी का यह विचार था कि यह गन्धक और सीसा का यौगिक है। इससे स्पष्ट है कि उनको अंजनम् धातु के मौलिक रूप का । ज्ञान न था । शेखुर्रईस ने इसे मृत सीसा का | जौहर लिखा है । जिसका कारण आगे वर्णित । होगा । । प्रायः प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं रसशास्त्री में सभी जगह सुर्मा के विविध प्रयोगों का वर्णन पाया है। वे इसके गुण धर्म : एवं वाह्य व प्राभ्यन्तर उपयोग से भली भाँति परिचित थे। इतना ही नहीं अपितु, संसार के सब से प्राचीनतम ग्रन्थ वेद (अथ०) में तो इसका पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है। नोट-शुद्ध प्रअनम् धातु (Antimony), औषध रूप से व्यवहार में नहीं आता, किन्तु इसके निम्न लिखित प्रकृति में पाए जाने वाले या रसायनशालामें बनने वाले यौगिक ही औषध रूप से उपयोग में आते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में प्रजनम् धातु (Antimony ) अर्थात् इसके यौगिकों के अतिरिक श्रअन शब्द उन समस्त अर्थी के लिए व्यवहार में आता है जिनका आँजने से सम्बन्ध है। फिर चाहे वे खनिज या चानस्पतिक दम्य हों, अथवा प्राणिज । कहा भी है :-- अञ्जनं क्रियते येन तद्रव्य चाजन स्मृतम् । अर्थात् जिस प्रष्य से आँजन किया जाय वह अञ्जन कहलाता है। प्रस्तु, जहाँ इसके भेदों का वर्णन होता है। वहाँ से भी यह बात स्पष्ट होती है। यथासौवीरमजनं प्रोक्तं रसाअन मतः परम् । स्रोतोऽजनं तदन्यच पुष्पाजनकमेव च । नीलाअनञ्चति ॥ (गस. दपं०, वा०) अर्थात्---सौवीरांजन, रसांजन, स्रोताजन्, पुप्पाजन और नीलाञ्जन प्रमति पंचविध अंजनों में से रसांजन किसी किसी के मत से पीले चन्दन का गोंद है अथवा पीले चन्दन के काढ़े से बनता है और पीत होता है । यथा-- पीत चन्दन निर्यास रसांजनमितीरितम् । तरक्काथर्ज वा भवति पीताभं वक्य रोगनुत् ॥ और किसी किसी के मत से दारुहरूदी के काढ़े को बकरी के दध में मिलाकर श्रौटाकर गाढा करलें । यही रसांजन अर्थात् रसवत् है । यथादावी काथ सम तीरं पादपका यदा धनम् । तदा रसांजनाख्यं तनेग्रयोः परमं हितम् । (भा०) और किसी किसी के विचारानुसार यह कृष्ण. पाषाणाकृति का एक द्रव्य या नीलांजन है। इसे अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फेट ऑफ लेड (Sulphate of Lead)कहते हैं। यह गन्धक और सोसा का एक यौ गिक है। For Private and Personal Use Only
SR No.020060
Book TitleAayurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size27 MB
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