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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ उत्तरार्धम् ] ७३ (स) कर्णपर्यन्त ( संनिचिते ) घनिष्ठता से ( भरिते चाला कोडीं ) बालानों hat कोटि (नियों) से भरा हुआ हो, फिर ( एमे बाज़ग्गे असं वेज्जाई खंडाई कज्जइ ) एक २ बाला के असंख्यात प्रमाण खंड किये जायें। अब द्रव्य से उन खंडों का प्रमाण कहते हैं - ( ते खंबाला कुणिं श्रहा श्रसंखे इभा मेत्ता ) वे बालाय दृष्टि की श्रवगाहना से असंख्यात भाग मात्र हो अर्थात् यावन्मात्र दृष्टिगत पदार्थ हों, उन से भो असंख्यात भाग प्रमाण वह खंड न्यून हो, इसलिये दृष्टि से वह खंड असंख्यात भाग प्रमाण होता है । अत्र क्षेत्र से प्रमाण कहते हैं - ( मुहुमरस पणजीवस्स सरीरागाहणाउ वेज्जणा ) सूक्ष्म पनक - जीव के शरीर की अव गाना से असंख्यात गुणाधिक है । अ: यावन्मात्र सुक्ष्म पनक जीव की शरार अवगाहना होती है, उस से असंख्यात गुणा है यानी बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त जीवों के तुल्य है, इस प्रकार वृद्धवाद भी कहा जाता है। फिर ( तें वालग्गाणो मी इंजन ) उन वालानों को अग्नि भी दाह न कर सके, (बाऊ होता नही वायु हरण कर सके, ( नाकु उना ) न ही वे सड़े, (खो विकरिता विध्वंस भी न हों, ( णो पुत्ताए हान गछेजा ) नही दुर्गेवता को वे प्राप्त हो, (तयों सनए २ एगमेगं बालगं हाथ ) फिर एक २ वालाग्र को समय २ में अपहरण करके ( जाव इएकालें ) यावन्मात्र काल में ( से पल्ले खोसे नीरए निल्लेवे निट्टिए भवइ, ) वह पल्य क्षीण, निरज, निर्लेप और निष्टित होता है, (से तं मुहुमे उद्धारपलिश्रोत्रमे ।) इसी को सूक्ष्म - उद्धारपल्योपम कहते हैं । ( एएसिं पल्ला कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिया 1 ) ( तं सुहुमन्स उद्या सागरोत्रमस एस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इन पल्यों को दश कोटाकोटि गुणा करने से एक सूक्ष्मउद्धारसागर का परिमाण होता है, अर्थात् दश १० कोटाकोटि पल्यों का एक सूक्ष्मउद्धारसागर होता है । ( एएहिं सुहुनउद्धारपतिओमसागरोत्रमेहिं किं पश्रयणं ? ) इन सूक्ष्म उद्धारसागरोपम और पल्योपम के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? ( एएहिं सुहुनउद्धारपचियोवनसागरोत्रमेहिं दीवस मुद्दाणं उद्धारं घेप्पड़ ) इन सूक्ष्म उद्धारपल्योपम और सागरोपमों से द्वीप समुद्रों का उद्धार किया जाता है, + प्राकृत भाषा में जैसे कोई घटादि जल से इतना पूर्ण हो कि उसमें एक भी बिन्दु और प्रविष्ट न हो सके तो उसकी पूर्णता को कर्ण - पूर्णता कहा जाता है । + 'दिट्ठी' इत्यपि पाठः । * 'वादर पृथिवी कायिक पर्याप्तशरीरतुल्यानीति' वृद्धवादः । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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