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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] और (तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवणं ) उस पल्य की कुछ विशेष त्रिगुणी परिधि हो, (से णं पल्ले एाहियषेत्राहिएतेश्राहिए जाव उल्होसणं सत्तरत [५] रूढाणं) फिर उस पल्य में एक दिन से लेकर सात दिन पर्यन्त उत्पन्न हुए हुए बालकों के (वालगकोडीण) वालारों की अनियों से (संस संनिचिने) संसृष्टता पूर्वक और पूर्णतया अथवा घनिष्टतया (भरिए) भरा हुआ हो, फिर उन वालायों को ( नो अग्गी डहेना ) अग्नि दाह न कर सके, (नो वाऊ हरेजा) न ही वायु हरण करे, (नो कुटेज्जा) न ही सड़े अर्थात् परिभ्रंश भी न हो, (नो विद्वसेजा) न ही विध्वंस हो, (नो पूइत्ताए हब्बारच्छेज्जः) न ही दुर्गध उत्पन्न हो, फिर (तो णं समए २ एामगं वालग्गं वहाय) उन वालाग्रों को समय २ में अपहरण करके (जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीर हल्लेिवे निटि ए भवइ, से तं ववहारिएउद्धार पलिग्रोवमे । ) जितने काल मात्र में वह पल्य क्षीण, *निरज, निलप और निष्टित होता है उसीको व्यावहारिक उद्धारपल्योपान कहते हैं। पल्य के स्वरूप के अनन्तर अब सागरोपम का विवर्ण करते हैं ( एए सि पल्लाणं कोडाकोटी हवेज दसगुणिया । तं ववहारियस्स उद्वारसागरोनारस एास्स भये परिमाणं ॥१॥) इन उक्त पायोपमों को दश कोटा कोटि गुणा करें तो एक व्यवहारिक उद्धार सागरोपम का परिमाण होता है अर्थात् दश कोटा कोटि पल्योपमों का एक सागरोपम होता है, (एए हे वाहारियउद्धारपनि शोवनसागगेवमेहिं किं पायण ?) इ. व्यावहारिक उद्धारपल्योयम और सागरोपम के कथन करने का क्या प्रयोजन है ? (नस्थि किंचिप्पग्रोयणं, केवलं तु परणवण किजइ) कुछ भी प्रयोजन नहीं है, केवल प्ररूपण मात्र ही इनका विवर्ण किया जाता है । जब किंचित् मात्र भी प्रयोजन नहीं है तो फिर इसका विवणं व्यर्थ है ? वर्तमान प्रारम्भ मास में इसको किंचित्मात्र भी प्रयोजनता असिद्ध है किन्तु सूक्ष्म उद्धारपल्योपम समास के समय में यह सुखावोध के लिए उपादेय है श्वर्थात् अत्यन्त उपयोगी है, (से ववहारिए उद्वार पनि ग्रोवमे) अतएव वही व्यावहारिक उद्धारपल्योपम है। भावार्थ-औपमिक समास उसे कहते हैं जहाँ पर गणित का विषय तो न हो सके, परन्तु उपमा के द्वारा उसका विवर्ण किया जाय, वह उपमा दो प्रकार से वर्णन की गई है, जैसे कि–पल्योपम और सागरोपम, पल्योपम के भी तीन भेद हैं, जैसे कि-उद्धारपल्योपम. श्रद्धापल्योपम और क्षेत्र * यह तीनों शब्द एकार्थी हैं, तथापि परस्पर विशुद्धतर जानने चाहिए। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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