SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [उत्तरार्धम् ] करत हैं कि] हे भगवन् ! नारकियों के शरीरों को अवगाहना कितनी बड़ी है ? [भगवान् , श्री गौतम प्रभु को संबोधन करके प्रथम अवगाहना के भेद प्रकट करते हुए निम्न प्रकार से उत्तर देते हैं ] भो गौतम ! अवगाहना दो प्रकार की वर्णन को गई है। एक भवधारणीया और दूसरी उत्तरवैक्रिया । भवधारणोया अवगाहना उसे कहते हैं कि जो ।जब तक आयु रहे तब तक रहे । उत्तरवैक्रिया उसका नाम है कि जो कुछ समय के लिये कारणवशात् वा स्वेच्छानुसार शरीर छोटा बड़ा किया जाय (तत्य णं जा सा भववारणिज्जा, सा जहएणणं अंगुलस्स असंवेज्जइभाग, उक्कोसेणं .पंचधणुसयाई) उन दोनों में जो भवधारणोया अवगाहना है, वह न्यून से न्यून अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण होती है [यह कथन उत्पत्ति समय की अपेक्षा से है ] और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण होती है । [यह कथन सातवों पृथ्वी की अपेक्षा से है ] (तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्बिया, सा जहरणेणं अंगुलस्स संखेज्जहभागं, उक्कोसेणं घणुसहरसं) उन दोनों में जो उत्तरवैक्रिया है, वह न्यून से न्यून अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण होती है [ असंख्यात भाग प्रमाण में वैक्रिया की पूर्ति नहीं होती है।] और उत्कृष्ट से उत्कृष्ट १००० धनुष प्रमाण होती है । [ यह कथन भी सातवें नरक की अपेक्षा से है।] भावार्थ-नारकियों के शरीर की अवगाहना दो प्रकार से प्रतिपादन की गई है। एक भवधारणीया और द्वितीय उत्तरवैक्रिया। भवधारणीया जघन्य अंगल के असंख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण होती है। उत्तरवैक्रिया जघन्य अंगुल के संख्यात भाग प्रमाण और उत्कृष्ट १००० धनुष प्रमाण होती है । भवधारणीया उसे कहते हैं जो आयु पर्यन्त रहे और उत्तरवैक्रिया वह है जो कारण वश की जावे । यहां पर तो नारकियों की अवगाहना साम न्य प्रकार से कही गई है। अब आगे विस्तार पूर्वक उसका वर्णन करते हैं . रयणप्पहाए पुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विा य । तत्थ णं जा सा भव. धारणिजा सा जहरणेण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उकोसेणं सत्त धणूइं तिगिण रयणीओ छच्च For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy