SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २५ (जवो) यव ७, (अट्ठ गुणविवड्डिया कमसो) यह अनुक्रम से उत्तरोत्तर आठ गुणे बड़े हैं। (से किंतं परमाणु ? दुविहे पएणते, तं जहा-) परमाणु कितने प्रकार का है ? दो प्रकारका जैसे कि-(सुहुमे य ववहारिए य) सूक्ष्म और व्यावहारिक (तत्थं एंजे से मुहुमे से टप्पे) उन दोनों भेदों में से जो सूक्ष्म परमाण हैं वे तो स्थापनीय हैं (तत्य णं जे से ववहारिए से अणंताणं मुहुमपरमाणु समुदयसमिइसमागमेणं ववहारिए परमाणु पोग्गले निष्फज्जइ ) उनमें से जो व्यावहारिक परमाण है, वह अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं का समुदाय रूप है और उसी के द्वारा व्यावहारिक परमाण की उत्पत्ति होती है । (से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा उग्गाहेजा ?) हे भगवन् ! क्या यह व्यावहारिक परमाणु, खड्ग को धार अथवा क्षुरा की धार में प्रवेश कर सकता है ? (हंतः। गाजा ) हां, प्रवेश कर सकता है। ( से :: भंते ! तत्व छिज्जेज वा भिज्नेज या ?) हे भगवन् ! क्या उस व्यावहारिक परमाणु का छेदन भेदन हो सकता है ? (नो इण? समटे नो खलु तत्य सत्थं कमड) यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् इस प्रकार नहीं है तथा उस को निश्चय ही शस्त्र अतिक्रम नहीं करता (से णं भंते ! अगणिकावत्स मज्झ मज्झे णं वोइवएज्जा ?) हे भग वन् ! क्या वह परमाणु अग्निकाय के मध्य और मध्यान्तर में प्रवेश कर सकता है ? (हंता वीइवइजा ) हां, प्रवेश कर सकता है ( से णं भंते ! उज्झे जा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाणु जल सकता है ? (नो इण्टे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ) यह अर्थ समर्थ नहीं है । उस परमाणु को अग्नि रूप शस्त्र अतिक्रम करने में समर्थ नहीं है x (से णं भंते ! पोक्खलसंवयम्स महामेहस्स मझमझेणं वीइवएजा ?) हे भगवन् ! क्या वह परमाण 'पुष्कलसंवर्त' नामक महामेघ के मध्यान्तर में प्रवेश कर सकता है ? (हंता वीइवएज्जा) हां, प्रवेश कर सकता है । (से णं तत्थ उदंउल्लेसिया ?) हे भगवन् ! क्या वह व्यावहारिक परमाण पानी से गीला हो सकता है ? (नो इणढे समर्ट, नो खलु तत्य सत्थं कमइ) यह तुम्हारा कथन यथार्थ नहीं है । उसको निश्चय ही पानी रूप शस्त्र अतिक्रम नहीं कर सकता (से णं भंते ! गंगाए महानदीए पडि सोयं हव्वमागच्छेजा ?) हे भग_* यह सर्व कथन व्यवहार नय के मत से कहा गया है । निश्चय के मत से इसे स्कंध ही माना जाता है। हता' अव्यय कोमलामंत्रण में अथवा स्वीकार अर्थ में होता है । यहां पर स्वीकार अर्थ ही जानना चाहिये। 'णं वाक्यालंकार अर्थ में होता है । ४ क्योंकि अग्नि के परमाणु उसकी अपेक्षा स्थूल हैं और वह उनकी अपेक्षा से अत्यन्त सूचम है, इसलिये अग्निकाय पूर्वोक्त काम करने में असमर्थ है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy