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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ [श्रोमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] आय के समान जानना चाहिये । भाव क्षपणा के दो भेद हैं, आगम से और नो आगम से । आगम से भाव क्षपणा उसे कहते हैं जो क्षपणा शब्द के अर्थ को उपयोग पूर्वक जानता हो । तथा-नोश्रागम से भाव क्षपणा दो प्रकार की है, प्रशस्त और प्रशस्त । प्रशस्त क्षपणा उसे कहते हैं जो ज्ञान दर्शन चारित्र रूप हो, और अप्रशस्त उसे कहते हैं जो क्रोध मान माया लोभ रूप हो । इसी को नो. आगम से भाव क्षपणा, तथा यही भाव क्षपणा, और यही क्षपणा है । इस तरह पूर्वोक्त सभी अधिकार ओघनिष्पन्न निक्षेप के हैं। इसके बाद नामनिष्पन्न निक्षेप का स्वरूप प्रतिपादन किया जाता है नामनिष्पन्न निक्षेप। से कि त नामनिप्फरणे ? सामाइए, से समासओ चउविहे पण्णत्ते, त जहा-णामसामाइए ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए । णामठवणाओ पुव्वं भणि. आओ। दव्वसामाइएवि तहेव जाध, से त भवियसरीरदव्वसामाइए। से किं तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए ? दव्वपत्तयपोत्थयलिहियं । से तजाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए । से त नोशागमओ दव्वसामाइए । से त दव्वसामाइए । से कि त भावसामाइए ? दुविहे पण्णत्ते, त जहा आगमओ य नोआगमओ य । से कि तं आगमओ भावसामाइए ? जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावसामाइए। से कि त नोआगमओ भावसामाइए ? जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णियमे तवे । तस्त सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥१॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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