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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] I से उपयोग पूर्वक तथा नोश्रागम से प्रशस्त अप्रशस्त रूप होता है । जैसे कि - ज्ञान दर्शन और चारित्र का लाभ प्रशस्त लाभ और क्रोध मान माया लोभ का लाभ अप्रशस्त लाभ होता है । इस तरह से यहाँ पर नोश्रागम से भाव श्राय, भाव, और आय का वर्णन समाप्त हुआ इसके बाद अब क्षपणा का स्वरूप कहते हैं क्षपणा । से किं तं वरणा ? चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहानामज्वरणा ठवरणज्भवणा दव्वज्भवरणा भावज्भवणा । नामटवणा पुव्वं भणिश्राश्रो से किं तं दव्वज्वणा ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - आगमओ नोआगमत्र अ । से किं तं गमओ दव्वज्भवणा ? जस्स झवणेतिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजिनं जाव, से तं आगम दव्वज्भवणा । से किं तं नोआगमओ दव्वज्भवणा ? तिविहा परणत्ता, तं जहा - जाणवसरीरव्वज्भवणा भवियसरीरदव्वज्वणा जाण्यसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वज्भवणा । · से किं तं जाणयसरीरदव्वज्भवणा ? भवणापयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुचाविश्रचत्तदेहं सेस जहा दव्वज्भणे जाव, से तं जाणयसरीरदव्व For Private and Personal Use Only ज्झवणा । से किं तं भविसरीरदव्वज्भवणा ? जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खते, सेसं जहा द्रव्वज्झयणे जाव, से तं भविअसरीरदव्वज्भवणो ।
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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