SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २६४ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] भावप्रमाणं च गुणनयसंख्याभेदतस्त्रिवा प्रोक्तं । तत्रास्य गुणसंख्याप्रमायोरेवावतारो, नयप्राणे तु यद्यपि - बूया" " श्रासज्जउ सोयारं, नए नयविसार इत्यादिवचनात् क्वचिन्नयतमवतार उक्तः, तथापि साम्प्रतं तथाविधनयविचाराभावाद्वस्तुवृत्त्याऽ नवतार एव, यत इदमव्यक्तम् । " मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयति इह" इत्यादि । महामतिनाऽप्युक्तम् ' मूढनइयं तु न संपइ नयप्यमाणावारो से' त्ति, गुणप्रमाणमपि जीवाजीवगुणभेदता द्विधा प्रोक्तं तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाज्जीवगुप्रमाणे समवारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतस्त्रयात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानरूप्रमाणेऽवतारः । तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमा नागमभेदाच्चतुर्विधे प्रकृताध्ययनस्याप्तोपदशरूपतया श्रागमेऽन्तर्भाव:, तस्मिन्नपि लौकिक लोकोत्तरमेदभिन्न परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरि तत्रापि श्रात्मागमानन्तरागम परंपरागम भेद तस्त्रिविधेऽप्यस्य समवतारः संख्याप्रमाणेऽपि नामादिभेदभिन्ने प्रागुक्ते परिमाणसंख्यायामस्यावतारः, वक्तव्यतायामपि स्वसमयवक्तव्यतायामिदमवतरति, यत्रापि परभयसमयवर्णनं क्रियते तत्रापि निश्चयतया स्वसमयवक्तव्यं तव ।” Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् यद्यपि उपक्रम द्वारमें शास्त्रकार की प्रवृत्ति सामायिकादि पट् अध्यायोंके समवतार के विषय में है तथापि सुगमता के कारण सूत्रकार ने उनका वर्णन नहीं किया, अतः वृत्तिकार स्थान शून्य रहने से स्वयं इसका किंचिन्मात्र वर्णन करते हैं - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि उत्कीर्तन के विषय होने से उत्कीनानुपूर्वीय में समवतीर्ण होते हैं। इसी प्रकार गणनानुपूर्वी जानना चाहिये । क्योंकि गणन विषय होने से पूर्व्यानुपूर्वी या पश्चानुपूत्र होती है । तथा-श्रीद यिकादि भावों की अपेक्षा सामायिकाध्ययन श्रुतज्ञान रूप होने से क्षायोपश मिकादि षट् प्रकार के भाव में समवतीर्ण हाता है। पूर्वोक्त द्रव्यादि भेदतया प्रमाण द्वार की अपेक्षा जीव भाव रूप होने से + सामायिकाध्ययन भाव प्रमाण + गम में भी कहा है " दवा उभे, पमीयए जेण तं पमाणंति । इणमज्झणं भावोति ( प ) माणे समोयइ ॥ १ ॥” द्रव्यादिचतुर्भेद, प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति । मध्ययनं भाव इति भावप्रमाणे समवतरति ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy