SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५६ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पदार्थ – (से किं तं समोअरे ?) समवतार किसे कहते हैं ? (समोआरे) वस्तुओं # का स्वपर उभय भाव में चिन्तन करना, अर्थात यह वस्तु आत्मभाव, परभाव अथवा उभय भाव में अन्तभूत कैसे होती है, उसीको समवतार व हते हैं, और वह बिहे पण्णत्ते,) षटू प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( तं जहा-) जैसे कि - ( नामसमोधारे) नाम समवतार (ठवणासमोरे ) स्थापना समवतार ( दव्वसमोरे ) द्रव्य समवतार (खेत्तसमोआरं) क्षेत्र समवतार (लसमोआरे) कोल समवतार और (भांगसमोआरे) भाव समवतार | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नावा) नाम और स्थापना (पुत्रं भणियो) पूर्व वर्णन की गई है (जाब) यावत् (से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे ।) यही भव्य द्रव्य शरीर समवतार हैं । (से किं तं जायसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोरे ?) ज्ञशरोर और भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार किसे कहते हैं ? ( जाण्यसरीर भवियसरीरवइरिचे दव्वसमोचारे) ज्ञशरोर - भव्य शरोर-व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार (तिविहे पण्णचे) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( श्रायसमोरे) आत्मसमवतार ( परसमोर ) परसमवतार और (तदुभयसमो चारे) तदुभयसमवतार । (सव्वाविं) सभी द्रव्य ( श्रायसमो श्रारें आत्मसमवतार के विचार से ( प्रायभावे समोग्ररंति ) आत्मभाव अपने ही भाव में समवतीर्ण होते हैं ( परसमोरे ) परसमवतार के विचार से परभाव में भी रहते हैं, ( जहा कुडे बदराणि, ) जैसे कुण्ड में बदरी फल, (तदुभयसमो प्रारेणं) तदुभय-दोनों समवतार के विचार से ( जहा घरे खंभो श्रयभावे ) जेसे कि - घर में स्तम्भ - खंभा, अतः यह परभाव तथा आत्मभाव दोनों ही में है, और ( जहा ) जैसे ( घडे गीवा ) घट में ग्रीवा, जो कि कपालादि के समुदाय में और ( आयभावे य ) आत्मभाव में भी है। (हवा) अथवा (जाणयसरीर ) ज्ञशरीर (भवियसरीर ) भव्य शरीर ( वइरिचे) व्यतिरिक्त (दव्वसमोरे ) द्रव्य समवतार ( दुविहे पत्ते) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा-) जैसे कि - ( श्रायसमोरे अ ) आत्मसमवतार और (तदुभयसमोरे अ) तदुभयसम्वतार, ( चउसट्टिया ) चतुः षष्टिकाचार पल प्रमाण ( श्रायसमो रे ) आत्मसमवतार से ( श्रायभावे ) अत्मिकभाव में ( समोयर, ) समवतीर्ण होती है, और ( तदुभयसमोआरें ) तदुभयसमवतार से ( बचीस आए ) द्वात्रिंशिका अष्ट पल प्रमाण में ( समोयरइ ) समवतीर्ण होती है ( श्रयभावे श्र ) आत्मभाव में तथा * समवतरणं - वस्तूनां स्वपरोयेष्वन्तर्भावचिन्तनं समवतारः । + 'अपि' शब्द समुच्चय वाचक तथा '' वाक्य के अलङ्काकारार्थ जानना चाहिये । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy