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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] भरत सगर आदि प्रमाणयुक्त मनुष्य होते हैं, उस काल को अपेक्षा से उनका आत्मांगुल ग्रहण होता है। क्योंकि-'आत्मनामंगुलमात्मांगुलम्' जो आत्मा का अंगुल है वहो आत्मांगुल होता है । तात्पर्य-जिस काल में जोजोव उत्पन्न होते हैं उस काल में उनका आत्मांगुल कहा जाता है। ( तेसिंणं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालस्स अंगुलाई मुहं ) उन भरत सगरादि मनुष्यों का अपने अपने अंगुल से द्वादश अंगुल प्रमाण मुख होता है (मत्रमुहाई पमाणजुत्ते पुरिसे भवइ ) नव-मुख-प्रमाण-युक्त पुरुष होता है अर्थात् एकसौ आठ अंगुल प्रमाण पुरुष होता है । (दोरिणए पुरिसे माण जुत्ते भवड ) मान युक्त उसे कहते हैं, जैसे-किसी व्यक्ति को एक विस्तार पूर्वक मानोपेत जलकुण्ड में बैठा दिया, फिर उसके अनन्तर द्रोणिक प्रमाण जल उस कुण्ड से निकाल लिया, उसे 'द्रोणिक पुरुप' कहते हैं। तथा द्रोण परिमाण न्यून जल कुण्डिका में पुरुष के प्रवेश होने पर कुण्डिका पूर्ण हो जाती है । इससे भी उसे 'द्रोणिक पुरुष' कहते हैं । अथ उन्मान पमाणा विषय । (अदभार तुल्नमाणे पुरिसे उःमाण नुत्ते भवड) जिसका शरीर शुभ पुद्गलों से रचित है, उसको तुला में रोपित किया हुआ यदि अर्द्ध भार के प्रमाण वह पुरुष हो तो वह पुरुष उन्मान प्रमाण युक्त होता है । ( माणु-माणामागजुत्ता ) मान उन्मान प्रमाणयुक्त चक्रवर्त्यादि पुरुष जो (लकवण) लक्षण-शंख, स्वस्तिकादि ( वंजण ) व्यंजन-तिल मागदि ( गणेहिं ) गुण-क्षमादि करके ( उववेया ) उपेत-संयुक्त ( उत्तमकुलप्पसूया) और उग्रादि उत्तम कुलों में जो उत्पन्न हुआ है उसे (उत्तमपुरिसा मुणेयब्बा ) उत्तम पुरुष जानना चाहिये । ( टुंति पुण अहियपुरिसा) अधिक अंगुल प्रमाण उत्तम पुरुष होते हैं, जैसे (अट्टतयं अंगुलाणं उच्चिद्वा) एकसौ आठ अंगुल के आत्मांगुल से ऊंचे । (छन्नउ अहम्मपुरिसा) आत्मांगुल के प्रमाण से जो छयानवे अंगुल ऊंचा हो वह अधम पुरुष होता है (चउरुत्तम मजि कमिल्लाउ) जो एकसौ चार अंगुल प्रमाण ऊंचा हो वह मध्यम पुरुष होता है। (हीणा वा अहिया वा) उक्त प्रमाण से अर्थात् १०८ अंगुल से जो हीन वा अधिक और (जे खलु सरसत्तसारपरिहीण ) जो निश्चय ही आदेय स्वर और सत्त्व अथवा शारीरिक शक्ति, इन गुणों से रहित होता है, (ते उत्तम पुरिसाणं ) वह, उत्तम पुरुषों के ( अवसा पेसत्तणमुति ) अपने कर्मों के वश होते हुए दास भाव को प्राप्त होते हैं। अंगुलप्रमाणेणं छ अंगुलाई पायो) इन अंगुलों के प्रमाण For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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