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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] उएत्ति) बद्धायुष्क भाव में (कालो केवचिरं होइ ? ) काल से कितने समय तक रह सकता है ? (जहन्नेणं अंतोमुहत्त) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं) उत्कृष्ट से (पुवकोडीतिभागं,) पूर्व क्रोड वर्ष के तीसरे भाग* प्रमाण (अभिमुहनामगोए णं भंते !) हे भगवन् ! अभिमुखनामगोत्र बाला (अभिमुहनामगोएत्ति) अभिमुखनामगोत्र के भाव में ( कालो केवचिर होइ ? ) कितने काल तक रह सकता है ? (जहन्नेणं एक समयं) जघन्य से एक समय (उकोसेणं अंतोमुहुरा ।) उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण । (इयाणी) इस समय (को णो) कौन २ नय (कं संखं) किस २ शंख को (इच्छा) चाहता है-(तत्य णेगमसंगहववहाग ) उन सातों नयों में से नैगम, संग्रह और व्यवहार (तिविहं संख) तीन प्रकार के शंख को (इच्छति,) चाहते हैं 1, (तं जहा.) जैसे कि( एगभविअं) एक भविक ( बढाउनं ) बद्धायुष्क (अभिमुहनामगोत्तं च,) और अभिमुखनामगोत्र को। ( उज्जु सुनो दुविहं) ऋजुसूत्र दो प्रकार के ( संखं इच्छइ ) शंख को चाहता है, (तं जहा.) जैके कि-(बढाउग्रं च) बद्धायुष्क और (अभिमुहनामगोत्तं च) अभिमुख नामगोत्र को। (तिरिण सद्द नया ) तीनों शब्द नय’ सिर्फ (अभिमुहनामगोत्तं सखे ) अभिमुख नामगोत्र शख को (इच्छति) चाहते हैं । (से तं जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ता दव्वसंखा ।) यही ज्ञशरीर, भव्यशरीर और व्यतिरिक्त द्रव्य संख्या है। (से तं नोश्रागमश्रोदव्वसंखा ।) यही नोपागम द्रव्य संख्या है । ( से तं दव्वसंखा । ) और इसी को द्रव्य संख्या कहते हैं। ___* अर्थात् अन्तमुहूर्त प्रमाण श्रायु के शेष रहने पर परभव की आयु का बन्धन होता है और वह उत्कृष्ट से पूर्वक्रोड के तीसरे भाग में होता है । इस लिये जब से किसी जीव ने शङ्ख भव को आयु का बन्धन किया है, तब से उसे बदायुष्क कहते हैं । जैसे कि व्यवहार में राज्य के योग्य कुमार को राजा अथवा घृत के योग्य घड़े को धी का घड़ा कहते हैं उसी प्रकार ये तीनों नय स्थूलदृष्टि से तीनों प्रकार के शंख मानते हैं । + क्योंकि यह नय पूर्व नयों की अपेक्षा विशेष शुद्ध है। इसका मत यह है कि यदि एक भविक जीव शंख माना जाय तो अतिप्रसङ्ग दोष को प्राप्ति होगी, क्योंकि वह भाव शंख से 'बहुत अन्तर पर है। ___ + ये नय अतीव शुद्ध हैं। इस लिये इनके मत में प्रथम दोनों प्रकार के शंख भाव शंख के अन्तर पर होने से अकार्य रूप हैं । यद्यपि नयों में भाव की ही प्रधानता है, तथापि अतिप्रसा की निर्टत्ति करते हुए और भाव शंख के समीप होने से तीसरे को ही मानते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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