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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] प्रायःसा म्यो पनीत हैं । ( जहाँ *गो तहा गवनो) जैसे गौ है उसी प्रकार गवयनील गाय है, और (जहा गवत्रो तहा गो,) जिस प्रकार नील गाय है उसो प्रकार गौ है, (से तं पायसाहम्मोवणीए ।) वही प्रायःसाधम्यो पनीत है। (से किं तं सवसाहम्मोवणीए ? ) सर्वसाधोपनात किसे कहते है ? (मध्वसा. हम्मोवणीए) जिस में सभी प्रकार की समानता पाई जाय, उस को सर्वसाधोपनीत कहते हैं परन्तु ( सव्यसाहम्मे ) सर्वसाधम्यंपने में (श्रोत्रम्मे नत्थिः ) उपमा नहीं होती, (तहावि) तो भो ( तेणेव तम्स ) उसीसे उसको (ोत्रम् कोड,) उपमा की जाती है, (जहः-) जसे कि-(x अरिहंतेहि अरिहंतपरिसं कयं,) + अरिहंत ने अरिहन्त के समान किया, (चक्कक्षिणा चकवट्टिसरिसं कयं,) चक्रवर्ती ने चक्रवर्ती के समान किया, (बलदेवेण बलदेवतरिसं कयं,) बलदेव ने बलदेव के सदृश किया, ( वासुदेवेण वासुदेवतरिसं कयं,) वासुदेव ने वासुदेव के समान किया, ( साहुणा ) साधु ने (साहुसरिसं कथं,) साधु के समान किया, (से तं सबसाहम्मे,) यही सर्वसाधोपनीत है, और (से तं साहम्मोवणीर) यही साधम्यो पनीत है। (से किं तं वेहम्मोवणीए ?) वैधम्यो पनीत किसे कहते हैं ? ( वेहम्मोवणीए ) जो सामान्य धर्मसे विपरीत हो और वह (तिविहे पएणते,) तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं ज्हा- ) जैसे कि--(किंचिवेहम्मे) किंचिद्वधर्म्य (पायवेहग्मे) प्रायः वैधर्म्य और (सब्यवेहम्मे ।) सर्ववैधर्म्य ।। ( से किं तं किंांचवेहम्मे ! ) किंचि द्वैधय किसे कहते हैं ? (कि वेहम्मे) जिसमें किचिन्मात्र वैधर्म्यता हो, जैसे कि- जहा सामलेरो) जिस प्रकार श्याम गौ का बछड़ा * सकम्बलो गौः अर्थात् गौ सास्नादियुक्त होती है । टत्तकष्ठस्तु गवयः अर्थात् नील गाय के वत्तुलाकार कण्ठ हो । है । खुर, ककुद, सींग आदि सब में तो साम्यता है, सिर्फ नील गाय का वर्तलाकार करऽ है और गौ सास्नादियुक्त होती है । इसी लिये प्रायःसाधम्योपनीत है। +"भिसो हि हिं हिं ।” प्रा० व्या० । ८ । ३। ७ । तथा "भिस् यस्सुपि ।" प्रा० व्या० । । ३ । १५ । इन सूत्रों से उक्त पद 'अहंत' शब्द का तृतीया का बहुवचन सिद्ध होता है। x 'तीर्थं का स्थापन करना' इत्यादि कार्य अरिहन्त ने अरिहन्त के समान ही किया । क्योंकि लौकिक में यह भली प्रकार से प्रगट है कि किसी के किये हुये अद्भुत कार्य को देखकर ऐसा कहा जाता है कि-इस कार्य को आप ही कर सकते थे अथवा श्रापके तुल्य जो होगा वही इस कार्यको कर सकता था, अन्य नहीं। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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