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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] उन श्रेणियों को ( विक वभसूई ) विष्कम्भसूचि (असंखे जाओ) असंख्येय (जोमणकोडाकोडीओ) क्रोडाक्रोड योजन के प्रमाण है, जो कि (असंखेजाई) असंख्येय (सेढीवामूलाई,) श्रेणियों के वर्गमूल के समान है। (*इंदियाणं ) द्वीन्द्रिय जीवों के (ओरालियबदल्लएहिं) बद्ध औदारिक शरीरों से (पयरं अवहीरइ) प्रितर अपहरण किया जाता है (प्रासंखिजाहि) असंख्येय (उस्सप्पिणोश्रोसप्पिणीहिं काल मो) उत्सर्पिणी और अवप्पिणियों के काल से, (खेत्तश्री क्षेत्र से (अंगुलपयरस्स) प्रमाणांगुल प्रतर का (प्रावलियाए) श्रावलिका के (प्रसंखिजइभागपदिभागेएं,) असंख्यातवें भाग के अंश से ( मुक्केल्लया ) मुक्त औदारिक शरीर (जहा) जैसे (ोहिश्रा ओरालियसरीरा) औधिक औदारिक शरीर होते हैं (तहा) उसी प्रकार (भाणियया) कहना चाहिये । तथा-( वेउन्धि यपाहारगतीरा बल्लया ) बद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर (नत्थि) नहीं होते । (मुकल्लया) मुक्त (जहा) जिस प्रकार (ोहिश्रा ओरालिअसरीरा) औधिक औदारिक शरोर होते हैं ( तहा भाणि ग्रया, ) उसी प्रकार कहना चाहिये, और ( ते अगकम्मगसर्गरा ) तैजस तथा कार्मण शरीर ( जहा ) जिस प्रकार (एएसिं चेव) निश्चय ही इनके (ोरालिअसरांग, औदारिक शरीर होते हैं (तहां) उसी प्रकार (भाणियया ।) कहना चाहिये। *-इदानी प्रस्तुतशरीरमानमेव प्रकारान्तरेणाह'-इंदियाणं मोरालियसरीरेहिं बढल्लएहि, मित्यादि, द्वीन्द्रियाणां यानि वद्वान्यौदारिकशरीराणि तैः प्रतरः सवोऽप्यपहियते, कियता कालेनेत्याह असंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीभिः, केन पुनः ? क्षत्रप्रविभागेन कालपविभागेन च, एतावता कालेनायमपहियत इत्याह-अंगुलप्रतरलक्षणस्य क्षेत्रस्य आवलि कालक्षणस्य च कालस्य योऽसंख्येयभागरूप: प्रविभागः-अंशस्तेन । इदमुक्त' भवति-या कैकेन द्वीन्द्रियशरीरेण प्रतरस्यैकैकोऽङ्गलासंख्येयभाग एकै केनावलिकाऽसंख्येयभागेन क्रमशोपहियते तदाऽसंख्येयोत्सपिण्यवर्षिणीभिः सर्वोऽपि प्रतरो निष्ठां याति, एवं प्रतरस्यैकैकस्मिन्नङ्गुलासंख्येयभागे एकैकेनावलिकाऽसंख्येयभागेन प्रत्येक क्रमेण स्थाप्यमानानि द्वीन्द्रियशरीराण्यसंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीभिः सर्वं प्रतरं पश्यन्तीत्यपि दष्टव्यम्, वस्तुत एकार्थत्वादिति ।-इसका भावार्थ पदार्थ में भागया है। + अर्थात असंख्येय काल चक्रों से उस प्रतर के अाकाश-प्रदेश अपहरण किये जाते हैं। क्षेत्र से प्रमाणांगुल के असंख्येय भाग के और काल से आवलिका के असंख्येय भागके अंश से अपहरण करें तो असंख्येय कालचक्रों से वे प्रतर निर्लेप होते हैं अर्थात उतने द्वीन्द्रिय जीव हैं । अथवा उक्त प्रमाण से यदि उसी प्रतर में द्वीन्दिय जीवों को स्थापन करें तो भी पोक्त कल्पित समय लगता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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