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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] १२४ में छोड़ा था उसे मुक्त औदारिक शगेर कहते हैं । अब इनकी संख्या का प्रमाण कहते हैं, जैसे कि-(तत्य णं जे ते बदल्लया) इन दोनों में जो बद्ध औदारिक शरीर हैं (तेणं असंखिजा) वे असंख्येय हैं, क्योंकि इसका प्रमाण यह है कि-(असंखिजाहि) यदि प्रति समय एक २ शरीर अपहरण किया जाय तो वे असंख्य य: (उरसप्पिणी ग्रोसप्पिणीहि। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो ( अहीवर्गति कालो ) काल से अपहरण किये जाते हैं, अर्थात् बद्ध औदारिक शरीर जितने असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणियों के समय हैं उतने हैं, क्योंकि नारिकीय और देवों को छोड़ कर शेष जीव औदारिक शरीर से बद्ध है, परन्तु सिद्ध अशरीरी हैं । (खेतो असंखे जा लोगा, क्षेत्र से असंख्यात लोग प्रमाण, अर्थात् असत् कल्पना के द्वारा यदि एक २ औदारिक शरीर एक २ आकाश प्रदेश पर स्थापन किया जाय तो असंख्यात लोकाकाश के समान, अलोक में से प्रकाश प्रदेश ग्रहण किये जायँ तो उतने ही औदारिक शरीर हैं, अत एव क्षेत्र से भी सिद्ध हुआ कि असंख्यात लोकाकाश के तुल्य बद्ध औदारिक शरीर हैं। जब औदारिक शरोरों में रहने वाले जोव अनन्त हैं तब औदारिक शरीर अनन्त क्यों नहीं है ? साधारण काय की अपेक्षा प्रत्येक शरीर वालों को छोड़ कर जो साधारण शरोरी हैं, उनके एक एक शरीर में अनन्तानन्त जोव निवास करते हैं, अर्थात् अनन्त जीवों के समुदाय से एक हो औदारिक शरीर होता है, और जो प्रत्येक शरीरो हैं वे असंख्यात ही होते हैं, इसलिये बद्ध औदारिक शरोर असंख्यात हैं । अब मुक्त औदारिक शरीर का वर्णन करते हैं-(तत्य णं जे ते मुक्केल्लगा) उन दोनों में जो मुक्त औदारिक शरीर हैं (ते णं अता) वे अनन्त हैं, क्योंकि इनका प्रमाण यह है कि-( अगांताहिं उसप्पिणीयोसप्पिणी हि अबहीति कालो ) अनन्त उत्सपिणी और अवसपिरिणयों के काल से अपहरण किये जाते हैं अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी और अवसपिणिों के काल का राशियों के समय के तुल्य मुक्त औदारिक शरीर +इनका प्रमाण द्रव्य क्षेत्र और काल से किया जायगा इसीलिये यह संख्येय पद है, तथा भाव द्रव्यान्तर्गत होने से पृथक् वर्णन नहीं किया गया। अनेन सूत्र गण उत्सर्पिणी अवसांप्पणी शब्दं सिद्ध भवति, तथा च,-क-ग-ट-ड-तद-प-श-प-म-) क ) पाललुक् पा० । व्या० । अ० । ८ पा० । २ सूत्र । ७७ अनादौशेपा. दशयोधिम् । ८६ । अवासोते | अ । पा० । १ । सू० । १७२। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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