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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ [ श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] कायके कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं ? (गोयपा ! तो सरीरा पणत्ता, तंजहाहे गौतम! तीन शरीर प्रतिपादन किये गये हैं,जैसेकि-(ओरालिए) औदारिक (तेअए) तेजस और (कन्मए,) कार्मण्य, (एवं ग्राउ तेउवणरसइकाइयाण ऽवे) इसी प्रकार अपकाय तेजस काय और वनस्पति काय के भो (णा चंब तिरिग सरीरा भागियचा,) ये तीनों शरीर कहना चाहिये (वाउकाइयागणं भंते ! कइ सरीरा पण्णत्ता ? ) हे भगवन ! वायुकायिक जीवोंके कितने शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, (गोधमा ! च तारि सगरा पण्णता, नं जहा.) हे गौतम ! चार प्रकार के शरीर प्रपिादन किये गये हैं, जैसे कि-(ोगन्निए वेउबिए तेअए काम। औदारिक वैक्रिय तेजस और कार्मण्य, तथा (वेदं दियतेदियचउनिंदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं,) पृथ्वी काय के जितने शोर होते हैं उतने ही द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के जानना (पंचिदियतिरिक्ख नं.णिश गं नहा बाउकाइयाग ।) पंचेन्द्रिय तिर्यक योनियों के शरीर वायु काय के समान हैं अर्थात् इनके भो चार शरीर होते हैं। ( मणु साणं भंते ! कइ सी परगना ? ) हे भगवन् ! मनुष्यों के कितने शरीर प्रति. पादन किये गये हैं ? (गोया ! पंच सरोग पण्णता, तं जहा-) हे गौतम ! पांच ही शरीर प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-(ओगलिए वेचिए अाहारा नेग्रा करमण । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण्य. किन्तु (वागमतगणं जानिमियागं वमाणियागां) व्यतर ज्योतिषी और वैमानिक देवों के शरीर (जहा नेण्डयाग ।) जैसे नारिकियों के वर्णन किये गये है उमो प्रकार इनके भी जानना चाहिये, अर्थात इन तीनों के तीन २ शरी होते हैं। भावार्थ---शरीर पांव प्रकार से प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे कि-श्रीदा. रिक शरीर १ वैक्रिय शरीर २ आहारक शरीर ३ तेजस शरीर ४ और कार्मगय शरीर ५, औदारिक शरीर उसे कहते हैं जो सर्व से प्रधान और स्थूल तथा जिस की अवगाहना एक योजन से कुछ अधिक हो १, वैकिय शरीर उसे कहते हैं जो नाना प्रकार की क्रिया के द्वारा नाना प्रकार के रूप धारण करे २। इसकी उत्तर वैक्रिय अवस्था एक लाख योजन की और भवधारणीय शरीर की ५०० धनुष तक होती है । चतुर्दश पूर्वधारी अपनी शंका के दूर करने के वास्ते एक नया शरीर रच कर श्री केवली भगवान् के पास भेजते हैं, उसको श्राहारक शरीर कहते हैं ३, तथा-रसादि श्राहार को पाचन करने वाला तैजस शरीर कहलाता है ४, और अष्ट कर्मों से जनित भवान्तर में विपाक रस का देने वाले कार्मण्य शरीर होता है, अर्थात् कर्मों का कोष रूप है, विशेष इतना ही है कि-इन पांचों में औदारिक शरीर ह्रस्व से ह्रस्वतर और दीर्घ से दीर्घतर होता है, क्योंकि For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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