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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी+ पुरिमेवा, संघाइमेवा, अक्खे वा, वराडएवा, एगो वा,अणेगो वा,सम्भावठवणाए वा, असम्भावठवणाए वा,आवस्सएति ठवणा ठविजइ, से तं ठवणावस्सय॥नाम ठवणाणं को पकविसेसो ? णामं आबकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होज्जा, आवकाहियावा होजा // 9 // से किं तं दव्वावस्सयं ? दवावस्सयं दुविहं पण्णत्तं तंजहा-आगमओय 4 लेप कर्म अर्थात् चूना वगैरह के लेप से बनाय हुआ रूप 5 सूत्रादि गूंथ कर बनाया हुवा रूप, 6 शृंखलादि के वेष्टन से बनाया हुवा रूप, 7 पूरिम-धातु आदि को पिगलाकर संचे में पूरकर बनाया, बनाया हुवा रूप, 8 संघातिम-वस्त्रादि खण्ड को एकत्रित कर जोडकर बनाया हुवा रूप, 9 अक्षप रूप पासा. वगैरह,डालकर बनाया रूप और 10 वराढ-कौडी प्रमुख स्थापन कर बनाया हुवा रूप.यह उक्त प्रकार के दश के एक रूप व अनेक रूप यों 20 हुए. उस में सद्भाव स्थापना व असद्भाव स्थापना करे, यो 40 भेद हुए। इस प्रकार से उक्त वस्तु को आवश्यक के अभिप्राय से स्थापना करना वहीं स्थापना आवश्यक है." अर्थात् इस प्रकार स्थापना आवश्यक माना जाता है. प्रश्न-अहो भगवन् ! नाम आवश्यक व स्थापना आवश्यक में क्या भेद है ? उत्तर-अहो शिष्य ! नाम जीवन पर्यय रहता हैं और स्थापना तो थो काल की भी होती है अर्थात् उस के आकार में पलटा हो जाता है और विशेष काल की भी होती है. यह स्थापना आवश्यक हुवा // 9 // प्रश्न-अहो भगवन् ! द्रव्य आवश्यक किसे कहते ? *प्रकाशक-राजबहादुर ालामुखदेवसहायजा ज्वालाप्रसादजी For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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