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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल. 420 भाग फुसंति असंखजइ भागे फुसंति, संखेजे भागे फुसंति, जाव सव्वलोए फुसांत ? एग दव्वं पडुच्च-संखिजइ भागे फुसइ, असंखेजइ भागे, संखिजे भागे वा, असंखिजे भागे वा देसूणं वा सव्वलोगे फुसइ णाणा दव्वाइ पडुच्च नियमा सबलोअं फुमति ॥अणाणुपुल्वी दवाइं अवत्तव्वग दव्वाइं च जहा खेतं, नवरं फुसणा भाणियव्वा ॥णेगम ववहाराणं आणुपुव्वी दवाई कालओ केवचिरं होड? एवं तिण्णिवि एगं दव्वं पडच्च-जहन्नणं एग समयं. उक्छौसेणं असंखिजं कालं नाणा दव्वाइं पडुच्च नियमा सम्बद्धा // नेगम ववहाराणं आणुपुवी दव्वाणं 42842 अनुपनिधि का क्षेत्रानुपूर्वी अर्थ असंख्यात भाग में स्पर्श यावत् सब लोक में स्पर्श ? अहो शिष्य ! एक द्रव्य आश्री संख्यात असंख्यात, संख्यातवे, असंख्यातवे भाग में,सब लोक में व स्पर्श और वहत द्रव्य आश्री नियमासे सब लोक को स्पर्श जैसे आनुपूर्वी व अवक्तव्य का वैसा ही यहां भी कहना पतु यहां पर स्पर्शना कहना. स्थिति में द्वार-नैगम व्यवहार नय की अपेक्षा से आनपीके द्रव्य की काल से कितनी स्थिति कही? अहो शिष्य तीनों की एक द्रव्य आश्री जघन्य एक समय उत्कृष्ट असंख्यात काल की और बहुत द्रव्य आश्री सव काल की. स्थिति है अंतर द्वार-नैगम व्यवहार नय के मत से भानपूर्वी द्रव्य का अंतर कितना कहा ? अहो शिष्य ! सीनो का एक द्रव्य आश्री अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त का उत्कृष्ट असंख्यात काल का और बहुत द्रव्य 23 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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