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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 49803 समोतरंति आयभावेय अदमाणी आयसमातारेणं आयभावे समोतरंति, तदुभयसमोतारेणं माणिएसमोतरंति, आयभावेअ. से तं जाणग भवियसरीर वइरित्तं दव्वसमोआरे // से तं नो आगमओ दव्वसमोयारे // से तं दव्वसमोआरे // 6 // से किं तं खेत्त समोयारे ? खेत्तसमोयारे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-आयसमोआरेय. तदुभयममोआरेय, भरहेवासे आयसमोआरेणं, आयभावे समोतरइ, तदुभयसमोतारेणं जंबुद्दीवेसमोतरेइ, आयभावेय. अंबूद्दीवे आयसमो एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ -प्रमाण का विषय में समवतरे यह दोनों आत्म भाव में प्रवर्ते. आधीमानी स्वयं स्वयं के स्वरूप में प्रवर्ते. यह उभय समवतार. 256 पल मानी में सपवतरे यह दोनों के आत्म भाव प्रवते. अर्थात् चार पल के चौसठीये 8 पल के बत्तीसीये में समावे, बत्तीसीये मोलसीयेमें समावे ऐसे ही सब जानना. यह ज्ञेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार हुवा.यह नो आगमसे द्रव्य समवतार हुवा,और यह द्रव्य समवतार हुआ॥६॥अहो भगवन् ! क्षेत्र समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! क्षेत्र समवतार दो प्रकार का कहा है तद्यथाआत्म समावे सो समवतार जानना. सोलसीये अठ विभागी में समावे, चौसठीये विभागी में समावे, सोचउभागी 128 पलीये में (आधी माणी में समाये, 256 वे माणी में समाये. यों स्वयं स्वयं समवतार, तदुभय समवतार. जैसे भरत क्षेत्र स्वयं स्वयं के सरूप में प्रवर्ते यह आत्म भाव समय तार, 48808 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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