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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ + एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ मूल 64 तिरिक्ख जोणियमणुस्स देवाणं आउयाइं असंतएहिं पलिउवम सागरोवमेहिं उवमिजइ असंतयं संतएणं उवमिज्जइ तं परिजुरिय परंतंचलंत वेढं पडंत नित्थिरं पत्तंवसणपत्तं काल. पतं भणइ गाहं-जह तुभेतह अम्हे, तुब्भेवि अहोहिआ जहा // अम्हे अप्पाहेइ, पडतं पंडुपत्तं किसलायाणं॥२॥णविअस्थि णवि य होही,उल्लाहोकिसलय पंडुपत्ताणं उवमा खलु एसकया,भवियजणविवोहणठाए // 3 // असंतयं असंतएहिं, उवमिज्जइ जहा खरविसाणं अन होती है, 3 अब अन होती वस्तु को होती वस्तु की ओपमा कहते है पिंपलादि वृक्ष का पत्ता / अत्यन्त जीर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ अन्त अवस्था आकर रहा हलता हुआ वीट से खिरने को आया हलता हुआ अस्विरबना स्वस्थान त्यागने लगा मृत्यु के अवसर को पाया नैवीन आई हुई कुंपलों को खिलती हुई हंसती हुई देख कर कहने लगा कि जैसी तुम नवी हो ऐसे हम भी नवे थे. और जैसे हम ज्यूने हुओ वैसे तुम भी होगी, हमारे जैसे ही टूट कर नीचे पडोगी, इस प्रकार पंडरपत्तने किसलिये कुपलको कहा. परंतु ऐसा कभी हवा नहीं और होवेगाभी नहीं जो पत्र कुंपल से बोले. इसलिये यह os औपमा अनहोती है. और वातसच्ची है कि संसार की पुद्गल पर्याय नवीन उत्पन्न जीर्ण अवस्थाको प्राप्त होती है. यह दृष्टांत फक्त भव्य जीवों को प्रति बोधने के लिये ही कहा जाता हैं 3 अब अन होती बस्तु, 48848 प्रमाण का विषय 48488 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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