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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ अनुवादक बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिनी : आव सिय खंथपएमा एवं ते अणवत्था भविस्सति तमा भगाइ, भइयव्वो पदेसो भणाहि, धम्मे पदेसे से पदेसे धम्मे. अहम्मे पंदने से पदेसे अहम्मे,अगामे पएसे से पएसे आगासे, जीव पदसे से पदेसे ना जीवे, खंधे पदेसे से पदेसे नो खधे, एवं वयं तं सद्द नयं, समभिरूढो भणति, जं भगासे धम्मेपदेसे से पदेस धम्मे जाव जीब. . यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश आकाशाम्त काया के प्रदेश नी-म्यात् धर्मास्ति काया प्रदेश भी जान स्यात् स्कन्ध प्रदेश. जीव पए वि-स्यात् अधर्मास्ति काया के प्रदेश भी, यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश भी. स्कन्ध प्रदेश भी-स्यात् धर्मास्ति प्रदेश यावत् स्यात् स्कन्ध प्रदेश. यों यह मर्याद के अभाव से अनवस्थ दोषो- - त्पन्न होते हैं उन को नहीं कहना. परंतु प्रदेश के भेद कहना ऐसा कहना. धर्मास्ति के प्रदेश को धर्म का प्रदेश कहना. अधर्मास्ति के प्रदेश को अधर्म का प्रदेश कहना आकाशास्ति के प्रदेश को आकाशका E प्रदेश कहना, जीवास्ति के प्रदेश को जीव का पदेश कहना. और पहल के स्कन्ध के प्रदेश को पुद्गल के स्कन्ध का प्रदेश कहना. परंतु जीव के प्रदेश को सम्पूर्ण जीव और स्कन्ध के प्रदेश को स्कन्ध नहीं कहना. इस प्रकार जो प्रदेश जिस से सम्बन्ध कर रहा हो जिस कार्य कर्म रूप प्रवर्त रहा हो है उस है। का प्रदेश कहना. यों ता धर्मास्ति आदि के प्रदेश पर अनन्त जीव के लथा पुद्गल के स्कन्ध है में वे अपने 2 भाव में प्रवर्तते हैं इस लिये उन को इस में सामिल नहीं करना. यों बोलते हुवे शब्द नय काशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी-ज्वालाप्रसाद जी * For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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