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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 100 488 एकाधिनः म अन्योगद्वार सूत्र चतुर्थ ठवणा सुयं जंणं कटकम्मे वा जाव ठवणा ठविजइ, से तं ठवणा सुयं // 29 // नाम ठवणा कोपइ बिसेसो ? नाम अवशाहवं, ठवणा इचरिया वा होजा, अवकाहिया वा होजा॥ ३०॥से किं तं दब्बसुय? दन्व सुयं दुविहं पराणचं तंजहा-आगमतोय,नो मागमतो य // 31 // से किं तं आगमतो दव्वसुयं ? आगमतो दव्वसुयं जस्सणं सुएत्तिपयं सिक्खियं, ठियं, जियं, आव णो भनुहाए, कम्हा ? अणुवभोगो दव्वस्थापना श्रुत जो पूर्वोक्त प्रकार काष्टादि दश प्रकार से वस्तु की एक तथा बनेक, सदाव तथा असदाबी स्थापना करे वह स्थापना श्रुत. यह स्थापना श्रुत दुवा // 29 // अहो मगवन् ! नाप व स्थापना में क्या विशेषता है? बहो शिष्य ! नाय नावणीव तक रहता है और स्थापना पोडे काल की भी होती है और जावजीव की भी होती है॥३०॥ अहो मगवन् ! द्रव्य भूत किसे कहते! अहो शिष्य / द्रव्य अत के दो भेद को. तद्यथा-आगम से और नो बागम से ॥१॥यहो ममवन् ! आगम से द्रव्य श्रुत किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! बागम से द्रव्य श्रुत उसे कहते हैं कि जिस किसीने गुरु के पास से "श्रत "ऐसा पद पठन किया होवे हृदय में स्थित किया होवे यावत् उसमें उपयोग नहीं रखा होवे। उपयोग रहित होने से इन्य श्रुत का आता है. नैगम भय की अपेक्षा एक न्पत्ति श्रुत पठन करता है। उसे एक द्रव्य श्रुब कहना. यों विस प्रकार सात नय भावश्यक पर कहे उस ही प्रकार यहां पर भी श्रत पर चार निक्षेपे 488288+ For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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