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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकात्रंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल // 12 // से किं तं आयंगुले ? आयंगुले ! जेणं अया माणुस्सा भवति तेसिणं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालसंगुलाई मुहं, नवमुहाई पुरिले ८५माणं जुत्ते भवति, दो माणिए पुरिसे माणजुत्ते भवति,अद्धभा तुलमाणे पुरिले उम्भाणजुत्ते भवती (गाहा) माणुम्माण प्पमाणजुसा लक्षणं बंजण गुणेहिं उववेया // उत्तम कुलपसुया, उत्तम पुरिसा मुणेयव्वा // 1 // होलिपुण अहियं पुरिसा अट्ठसयं अंगुल! ओक्ट्ठिा आत्मांगुल, 2 उत्सेधांगुल, 3 प्रमाण अंगुल // 12 // अहो भगवन् ! आत्मांगुल किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! आत्मांशुल सो जो भरत क्षेत्र के मनुष्य जिस काल जिस आरे में जितने वढे होवें उन " मनुष्यों का उस काल में अपना 2 जितना अंगुल होवे उस अंगुल से उन का मुख बारा अंगुल का होता है. और नव मुख जितना (108 अंगुल ) पुरुष शरीर का प्रमाण होता है. अब पुरुष का द्रोणमान युक्तपना कहते हैं-पुरुष प्रमाण कूडी पानी से भरकर उस में पुरुष बैठे बाद उस में द्रोण प्रमाने पानी बाहिर निकले उसे द्रोणमान द्रव्य मान कहना. (4 अहक की एक द्रोण होती है ) अब. तोलने का कहते हैं-आधे भार तोल में जो मनुष्य हों उसे प्रमाणुपेत मनुष्य कहना. इस प्रकार माम उन्मानप्रमाग 4 0 युक्त उत्तम पुरुष स्वस्तिकादि लक्षण मश तिटकादिव्यंजन क्षमादानादिगुण कर उपपेत उग्र भोगादि रत्तम * कुलोत्पन्न हो उसे उत्तम पुरुष जानना॥॥१०८ अंगुल प्रमाण शरीर होवे वह उत्तम पुरुष 86 अंगल प्रमान शरीर / - प्रमाण विषय 4860048 Re For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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