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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 8 924 एकत्तिम-अनुयोगद्वार मूत्र चतुर्थमूल प्रतिष्ट लिसागंथेव वाधुरोट ( लोडने ) से तं धाउए // 147 // से किंतं निरुत्तिए ? मह्यां शेतमहिष, भ्रनी चशेलिति भ्रमरः महर्षदुर्लसतीति मुसलं कपिरिवकंपते कपित्थं चिदिति करोति खलंच भवति चिक्खलं उईकर्णः उलूकः मेषस्यमाला मेखला सेनं निरुत्तए // सेतं भावप्पमाणे // सेतेप्यमाणं // से तं दसनामे // नामेतिपयं सम्मत्तं // 148 // * * . भाव कर्म में भिन्न 2 रूप बनाये जाते हैं. इन का पूर्ण विस्तार व्याकरण से जानना. यहां सूत्र में Eतो मात्र सना रूप दिया है. ॥१४७॥पत-निरुक्ति किसे कहते हैं ? उत्तर-जो वर्षों के अनुसार अर्थ किया जावे उसे निरूति कहते हैं. जैसे मह्यां गति इति महिपः. अर्थात् पृथ्वी में जो शयन करता है वह महिष भैंसा, भ्रमनि रैति इति भ्रार: जो भ्रमण करता हुवा शब्द करता है वह भ्रमर, मुहुर लसति इति मुसलं अर्थात नो पारंवार ऊचे नीचे जाता हैं. वह मुसल, कपि जैसे वृक्ष की शाखा, में लंगायमान होवे और चेष्टा करे सो कवित्य. पादों को श्लेप करने वाला व पादों को स्पर्श होकर कठिन करने वाला वही चिक्खल है, जिस के कर्ण अर्ध्व हो वह उल्लू, मुख की माला वही मेखला है, या, निरुक्ति तद्धित का कथन हुवा. यह भाव प्रमाण का सप हुचा. यह प्रमाण का कथन हुवा. ॐ यह दश नाम का विवर्ण हुवा. यह नाम पद संपूर्ण हवा.॥ .48 // 4280 नाप विषय +284884 488 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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