SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुर्थ पूल 488 दव्वावस्सयाई करेति,ततो पच्छा रायकुलं वा, देवकुलं वा, आरामं वा, उज्जाणं वा, सभं था, पव्वं वा, निगच्छंति से तं लोइयं दवावस्सयं // 17 // से किं तं कुप्परवियणियं दवावस्सयं ? कुप्परावयणियं दव्वावस्सयं जे इमे चरग, चीरिय, चम्मखंडिय, भिक्खोडग, पडुरंग, गोयम, गोव्वतिय, गिाहधम्म, धम्मचिंत्तग, अविरूद्ध विरुद्ध, वुड्डसावग,प्पभितओ, पासंडत्था, कलं पाउप्पभाए रयणीए जाव तेयसाजलंते-इंदस्स वा. बोल का सेवन करते हैं, प्रधान वस्त्राभूषणादि से शरीर को अलंकृत करते हैं. पूर्वोक्तं कर्तव्य को 5. अपने नित्य के नियम जैसे करते हैं. इतना करके वे राज सभा में, देवादिक के स्थान में जन सभा में प्रयास्थान में, बाग बगीचे में क्रीडा करने के लिये जाते हैं, उसे लौकिक द्रव्य आवश्यक कहते हैं. यह केक द्रव्य आवश्यक हुवा. // 17 // प्रश्र-अहो भगवन् ! कुमावचानक द्रव्य आवश्यक / कहते हैं ? उत्तर-अहो शिष्य ! जो यह चरक-वस्त्रखंड रखने वाले, चर्म खंड रखने वाले, मृग शाला धारन करने वाले, भिक्षा करने वाले, भस्म शरीर के लगाने वाले, वृषभादि निमित्त से आजीविका करने बाले,गौ वृत्ति से थोडा 2 ग्रहण कर उपजीविका करनेवाले, गृहस्थावास में रहकर धर्म पालनेवाले अपवा गृहस्थ धर्म के उपाधिक यज्ञादि धर्म की चिंतवना करनेवाले सब लोगों से अविरुद्ध धर्म का आ आवश्यक पर चार निक्षपे 8 4.8807 2 4 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy