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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 68/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि के लिए विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों से समस्त उपलब्ध साक्ष्यों का निर्वाचन एवं नियन्त्रण करना होता है, जिससे मूल रचना की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके । इस प्रकार रचनाकार के मूल शब्द क्या थे, उनका पुनर्निधारण करना ही पाण्डुलिपि-सम्पादन का मुख्य कार्य है । कला या विज्ञान पाण्डुलिपि-सम्पादन को कुछ लोग विज्ञान मानते हैं। उनका मत इस तर्क पर आधारित है कि पाण्डुलिपि के मूल रूप का निर्धारण करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का प्रयोग करना पड़ता है। वास्तव में पाण्डुलिपि-सम्पादन का कार्य एक कला है। इस कार्य में बुद्धि और तर्क के प्रयोग की निश्चित सीमाएँ हैं,क्योंकि अनुमान भी बहुत दूर तक उनके साथ चलता है। फिर मूल रूप के निर्धारण में जो पद्धति अपनायी जाती है, वह विश्लेषण की उतनी अपेक्षा नहीं रखती, जितनी कलात्मक अभिरुचि पर आधारित होती है। पाण्डुलिपि-सम्पादन को बहुत सावधानी से वे साक्ष्य एकत्र करके क्रमबद्ध करने होते हैं, जो उसे रचना के मूल रूप तक पहुँचा सकें । यह कार्य विज्ञान की अपेक्षा कला के अधिक निकट है। विभिन्न पाण्डुलिपियों में कभी-कभी बहुत भ्रामक एवं परस्पर-विरोधी अंश अंकित मिलते हैं। उनमें से किसी एक अंश का चयन करना बड़ा कठिन कार्य होता है । यह कार्य विज्ञान के फार्मूलों जैसी किसी पद्धति से पूर्ण नहीं हो सकता । सम्पादक बुद्धि के उचित उपयोग के साथ अनेक कलात्मक पद्धतियों का सहारा लेकर मूल के निकटतम पाठ का निर्धारण करता है। वैज्ञानिक पद्धति से यदि पाण्डुलिपि का सम्पादन किया जाये तो कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि सम्पादक एक ऐसा रूप ही निर्धारित कर डाले जो मूल रूप के ठीक विपरीत हो। अत: मेरे मत से पाण्डुलिपि-सम्पादन का कार्य एक कला है, विज्ञान नहीं। इस कार्य में ऐतिहासिक अध्ययन की पद्धति का बहुत अधिक प्रयोग आवश्यक होता है। पाण्डुलिपि-सम्पादन का कार्य जितना कठिन है, उतना कठिन कोई भी अन्य ज्ञानकार्य नहीं है । पिछले पृष्ठों में हम इस कार्य को एक कला मानने को बाध्य हुए हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि यह कार्य जिस विधि से किया जाता है, उसको देखते हुए वह एक कला की भी कला है । कलाकार अपनी रचना में स्वतन्त्र होता है, इसलिए वह उसमें आनन्द का आस्वाद प्राप्त करता है, किन्तु पाण्डुलिपि-सम्पादक स्वतन्त्र कलाकार नहीं है । वह मूल रचना की अज्ञान सीमाओं में सम्भावनाओं के आधार पर कार्य करता है. इसलिए उसके कार्य में वह रोचकता नहीं आ पाती,जो उसे आस्वाद्य बनाये । विज्ञान की प्रक्रिया भी जटिल होती है, किन्तु उसमें भी वैज्ञानिक बराबर रोचकता का अनुभव करता रहता है,क्योंकि एक प्रयोग का परिणाम दूसरे प्रयोग के परिणाम का मार्ग प्रशस्त करता है तथा रोचक कारण-कार्य परम्परा नहीं होती, साथ ही उसे अपने परिणामों के लिए विज्ञान की तरह भविष्य की ओर भी दृष्टि नहीं रखनी होती। वह अनिवार्यतः अतीत की ओर लौटता है। वह अनेक पाण्डुलिपियों के भीतर से गुजरता हुआ एक ऐसी पाण्डुलिपि तक पहुँचना चाहता है, जो For Private And Personal Use Only
SR No.020048
Book TitleAnusandhan Swarup evam Pravidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamgopal Sharma
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1994
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size6 MB
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