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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 56/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि दृष्टि से कितना महत्त्व है, यह बताना उसका उद्देश्य नहीं है। शोध ही हमें इस उद्देश्य तक पहुँचाती है। समालोचना में हम किसी कृति का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं,शोध में हम उस कृति की ज्ञान-क्षेत्रीय स्थापना का सत्य प्राप्त कर सकते हैं। साहित्य की परम्परा देश और काल के विस्तार के अनुसार विराट और व्यापक है। उस परम्परा में किसी समालोचना के परिणाम से हम उसी प्रकार प्रसन्न या सहमत हो सकते हैं,जिस प्रकार किसी ग्रन्थ के किसी अंश को अपने मत के समर्थन के लिए उसे संदर्भ से तोड़कर अपने अर्थ में रखकर दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं। रावण के पाण्डित्य की तुलना में उसके अत्याचारी रूप को भूल जाते हैं। शोध का कार्य किसी उद्देश्य तक तभी पहुँचाता है, जबकि रावण को उसके सभी सन्दों में रखकर परखा जा सके। समालोचना जिस तथ्य की ओर जाती है,वह अपने में पूर्ण होने पर भी ज्ञान के विराट् संदर्भ में अपूर्ण हो जाता है । शोध उसी अपूर्ण तथ्य को पूर्ण बनाती है। अतः समालोचना का उद्देश्य काल और देश की सीमाओं से संकीर्ण है, जबकि शोध का उद्देश्य उनको लाँधकर विराट क्षेत्र से अपने सत्यों का संचय करना है। समालोचना का उद्देश्य किसी कृति या कृतिकार के महत्त्व को उठाना या गिराना भी हो सकता है, जबकि शोध का उद्देश्य उस महत्त्व को न उठाना है, न गिराना है, अपितु ज्ञान-विस्तार के क्षेत्र में रखकर उसका मूल्यांकन करना है। निष्पक्ष शोध का लक्ष्य होता है मानव-जीवन को आनन्दपूर्ण और सुन्दर बनाने वाले कृति-धर्म को प्रकाश में लाना, जिस तक समालोचना नहीं पहुँच पाती। पद्धतियों का अन्तर ___शोध का सूत्रपात तब होता है जब शोधार्थी के मन में किसी विषय के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न या शंकाएँ उत्पन्न होती है या ऐसी समस्याएँ सामने आती है जिनमें वह सुलझाना चाहता है । समालोचना इस स्थिति से आरम्भ नहीं होती। शोध में प्रश्न या शंका, समस्या आदि का एक ऐसा वस्तु-पर्वत शोधार्थी के सामने खड़ा होता है, जिसे वह पार कर लेना चाहता है और उसके फलस्वरूप वह एक निर्णय प्रस्तुत कर देता है। समालोचना में वह वस्तु-पर्वत समालोचक की प्रतिभा के नीचे दबा होता है, उसे उस पर विजय नहीं पानी होती और फलतः किसी मंजिल पर नहीं पहुँचना होता, अपितु यह सिद्ध करना है कि जो वस्तु या रचना उसकी प्रतिभा के कसाव में है,उसके समस्त विस्तार तथा निहित रचना-शक्ति को वह समझता है। शोधार्थी उस विस्तार को जानने के लिए अपनी अध्ययन-यात्रा आरम्भ नहीं करता, यद्यपि उस विस्तार को जानना उसके मार्ग की सहज क्रिया का अंग बन जाता है। वह मूलत: उस विस्तार के सम्बन्ध में अपने प्रश्नों, शंकाओं और समस्याओं के उत्तर खोजता है- ऐसे उत्तर जो उस विस्तार और उसमें निश्चित रचना-शक्ति से ही प्राप्त होते हैं। समालोचक कृति के विषय-विस्तार और निहित रचना शक्ति के सम्बन्ध में अपनी व्याख्याएँ देता है, जबकि शोधार्थी उन व्याख्याओं के सम्बन्ध में अपने मस्तिष्क में उठते प्रश्नों, शंकाओं और समस्याओं की ओर विशेष ध्यान देता है तथा उन्हीं के उत्तरों और समाधानों के लिए वस्तुनिष्ठ होकर अध्ययन में प्रवृत्त होता है । समालोचकीय कृति-व्याख्या उसका साध्य नहीं,साधन हो सकती है। समालोचक का अपने निर्णयों के प्रति आग्रह होता For Private And Personal Use Only
SR No.020048
Book TitleAnusandhan Swarup evam Pravidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamgopal Sharma
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1994
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size6 MB
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