SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 24/अनुसंधान : स्वरूप एवं प्रविधि साहित्यिक ग्रन्थों के साथ-साथ अन्य विषयों के ग्रन्थ भी आधार बनते हैं और इस प्रकार शब्दार्थ-सामग्री ही काम आती है। यही स्थिति दर्शनशास्त्र की भी है । इन विषयों में आँकड़ा पद्धति या प्रयोग प्रक्रिया काम नहीं आती। चित्रकला में शब्द नहीं बोलते, रंग और फलक बोलते हैं। उसमें भी प्रयोग नहीं होता, केवल अभ्यास की आवश्यकता होती है। संगीत कला में शब्द और स्वर की प्रमुखता रहती है, उसका भी लिखित साहित्य होता है। अतः इन विषयों में शोध की पद्धति अधिकांशतः समान होती है। विज्ञान के शोध-परिणाम भी मानविकी के शोध परिणामों से भिन्न प्रकार के होते हैं तथा उनका उद्देश्य भी भिन्न होता है । विज्ञान प्रधानतः नये आविष्कार को शोध का फल मानता है, जबकि मानविकी के क्षेत्र में शोध का लक्ष्य जीवन के सत्य, शिव तथा सौन्दर्य को उद्घाटित करना तथा उनसे सुख-पूर्ण जीवन की आधारशिला रखना होता है। समाजशास्त्रीय विषये कुछ सिद्धान्तों का नवीन उद्घाटन तथा उनका नवीन सिद्धान्त-निरूपण में योग तक विस्तृत एके व्यापक जीवन-दृष्टि को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मानविकी के क्षेत्र में शोध का बड़ा महत्त्व है। इस शोध के द्वारा ही मानव की क्रमशः विकसित संस्कृति का स्वरूप उद्घाटित होता है । अस्थि-पंजर का मनुष्य शरीर-त्याग के पश्चात् भी अपने अनुभवों, विचारों, कल्पनाओं, भावनाओं आदि के रूप में हजारों वर्षों तक जीवित रहता है। यदि कोई मनुष्य अक्षर-ज्ञान से शून्य होता है, तो वह भी अपने पीछे अपने अनुभवों आदि का एक विस्तृत जगत् छोड़ जाता है। वह भले ही अपनी भावनाएँ लिखित रूप में व्यक्त न कर सके, लिखने, सुनने और स्मरण कर सुरक्षित रखने वाले व्यक्तियों के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री छोड़ जाता है। यह सामग्री कभी लोक-साहित्य में काम आती है, कभी किसी कवि की वाणी का आश्रय पाकर शिष्ट साहित्य बनती है,कभी किसी कला का रूप ग्रहण करती है,कभी इतिहास के पन्नों में काम आती है और कभी किसी दर्शन को परिपुष्ट करती है। शोधकर्ता को इसी महत्त्वपूर्ण सामग्री के आधार पर नये निष्कर्षों तक पहुँचना होता है। यदि मनुष्य की हजारों वर्ष प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा का विकास करना है, पुरातन के दोषों को त्यागना है और नवीन की अच्छाइयाँ ग्रहण करनी हैं, तो हमें शोध का 'सहारा लेकर उसके इतिहास और दर्शन का समय-समय पर मूल्यांकन करते रहना चाहिए। यह कार्य सरल नहीं होता। शोधकर्ता को तिसी भी एक मानविकी विषय के ज्ञान के आधार पर अपनी यात्रा प्रारम्भ नहीं कर देनी चाहिए। चाहे इतिहास की शोध की जाए, चाहे दर्शन की, शोधक को उससे सम्बन्धित समाज के साहित्य का एक बार अवलोकन अवश्य करना पड़ता है। किसी भी इतिहास के पीछे एक समाज होता है। उसकी भावनाओं और आकांक्षाओं से ही इतिहास की घटनाएँ जन्म लेती हैं। यही स्थिति दर्शनशास्त्र की भी है। प्रत्येक शोधकर्ता को दार्शनिक तथ्यों के निष्पादन के लिए साहित्य में या अन्य क ओं में अभिव्यक्त भावनाओं और विचारों का मूल्यांकन करना पड़ता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020048
Book TitleAnusandhan Swarup evam Pravidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamgopal Sharma
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1994
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy