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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४५ पन्नगविषशान्तिः www.kobatirth.org चतुर्थः समुद्देशः 'तरक्षुदंष्ट्रया रूपं वैनतेयस्य वातिकः । ? कृत्वा बिभर्ति यो बाहौ तं दशन्ति न पन्नगाः ॥१॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरक्षुनामक हिंस्र प्राणीके दांतको गरुड आकारके तावीजमें रख कर बाहुमें धारण करने वाले पुरुषको सर्प दंश नहीं करते हैं ||१|| बन्ध्याकर्कोटकीमूलं छागमूत्रेण भावितम । नस्य काञ्जिकसंपिष्टं विषोपहतचेतसाम् ॥२॥ विषमूच्छित व्यक्तिको अजाके मूत्र से भावित बन्ध्याककोर्टकी मूलको कांजीमें पीस कर नस्यके रूपमें देना चाहिए ||२|| लज्जामूल करे बद्धवा विलेप्य सकलं वपुः । रमते फणिभिः सार्द्ध वातिको गरुडेा यथा ॥३॥ लज्जामूलका करबन्धन और संपूर्ण शरीरमें उससे विलेपन करने वाला पुरुष गरुड पक्षीके समान भयंकर सर्पों के साथ खेलता है ||३|| त्रिफला चन्दनं कुष्ठमार्द्रकं घृतसंयुतम् ! पानलेपसमायोगे दष्टस्य विषनाशनम् ||४॥ त्रिफला, चन्दन, कुष्ठ तथा आर्द्रकको घृतमें मिलाकर पान और लेप करनेसे सर्पदष्ट पुरुषके विषका नाश होता है ||४|| १ श्लोकोऽयं ज पुस्तके नोपलभ्यतें For Private And Personal Use Only
SR No.020047
Book TitleAnupan Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishram Acharya
PublisherGujarat Aayurved University
Publication Year1972
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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