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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षुद्रजन्तुके दंश से उत्पन्न शोथ में प्रातः काल निद्रोत्थित अवस्थाका प्रथम थूक लेपन करनेंसे दंशके निर्विष होनेका प्रचार आज भी ग्राम्यजनमें देखने में आता है । योगशास्त्र में वर्णित खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर शिरः कुहर से होने वाला अमृतस्त्राव योगीका परमपुष्टि और तुष्टि देने वाला माना गया है । यह एक विशिष्ट प्रकारको योग सम्बन्धी क्रिया विशिष्ट स्थिति प्राप्त जिह्वा से ही होती है । इसको सामान्य रूपमें जिह्वाके तालुस्पर्श से होने वाले लालास्रावसे अमृत प्राप्ति या इसके लाभोंके रूपमें वर्णन करना कटिन है । पंचम समुद्देश इस ग्रन्थके पञ्चम और अन्तिम समुद्देशमें वर्णन योग्य विषयको दो विभागों में विभक्त किया गया है (१) धातु - उपधातुओं का शोधन और मारण ( २ ) रोगानुसार औषधानुपान । शोधन अन्य ग्रन्थोंमें तेल, तक, आदि जिन पांच द्रव्योंका शोधनके लिए उपयोग दिया गया है उनमें प्रथम द्रव्य तेलको छोड़कर इस ग्रन्थ में प्रथम त्रिफला क्वाथ को लिया गया है । अन्य ग्रन्थो में तैलसे प्रारंभ करके अन्तिम शोधन कुलत्थक्वाथ प्रत्येक में सात वार तपा कर निर्वापसे करनेका विधान है जबकि अनुपान मंजरीकारने यहां गोमू से प्रारंभ कर काजीको द्वितीय स्थानमें रखते हैं । कुलत्थक्वाथ तृतीय और तत्र तथा अन्तमें त्रिफला क्वाथ में पुन: पुनः तपाकर निर्वाण करनेका विधान किया है । For Private And Personal Use Only
SR No.020047
Book TitleAnupan Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishram Acharya
PublisherGujarat Aayurved University
Publication Year1972
Total Pages144
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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