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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अकबर की धार्मिक नीति www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 36 उसके व्यक्तित्व का एक महत्व पूर्ण अंग उसकी धार्मिक उदारता थी । मध्य युग की धमन्धिता, संकीर्णता, कटटरता, दुराग्रही अनिष्ट कारी रूढियों और राष्ट्र विरोधी परम्पराओं से वह ऊपर उठ गया था। उसने अपने शासन काल के प्रारम्भ में ही यह अनुभव कर लिया था कि उसके स्थायी और दृढ शासन के लिये भारत के सभी सम्प्रदाय, जातियाँ और an का तथा मुसलमानों और गैर मुसलमानों का सहयोग, सद्भावना, समर्थन और राज भक्ति प्राप्त करना आवश्यक है । इसी लिये उसने सभी धर्मों, सम्प्रदायों और वर्गों के प्रति उदारता, दया और सहानुभूति व समानता की नीति बरती । उसने गैर मुसलमानों पर होने वाले शासकीय अत्याचारो और घातक नीति के विरुद्ध कदम उठाये तथा शासन व राज्य व्दारा इस्लाम का प्रचार बन्द करवा दिया तथा हिन्दुओं पर लगे धार्मिक नियंत्रण तोड़ दिये । युद्ध वन्दियों को मुसलमान बनाना निषिद्ध कर दिया । उसने सब धर्मो के प्रति सुलह ए कुल अथवा सहन शीलता की नीति अपनाई । सत्य तो यह है कि अकबर के धार्मिक विचार अत्यधिक व्यापक थे और उसका धार्मिक दृष्टि कोण बहुत ही विशाल था । वह सभी कवियों के प्रति इतना अधिक सहिष्णु, कृपालु, विनय शील, उदार निष्पदा बार मैत्री पूर्ण था कि प्रत्येक मता कम्वी उसे अपने ही मत का अनुयायी समझता था । दीन दुखियों की सेवा करना और उनके दुखों को दूर करने का प्रयत्न करना वह अपना कर्तव्य समता था । अपनी पूजा को चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान सताना पाप समझता था । उपरोक्त गुणों के होते हुए भी अकबर का व्यक्तित्व दोनों से मुक्त न था । अन्य मध्य कालीन सम्राटों के समान ही वह भोग विलासी था । उसने मुसलिम शासको की पुत्रियों और राजपूत कन्यायाओं से विवाह किये थे । वह स्वयम् वहु पत्नित्व में विश्वास करता था । ययपि सम्राट मनसा अथवा कर्मणा निपट व्यभिचारी, व्यसनी बौर मोगासक्त भी नहीं कहा For Private And Personal Use Only
SR No.020023
Book TitleAkbar ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherMaharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay
Publication Year1977
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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