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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकलर की धार्मिक नीति दीनालाही की वालोचना व समीपा: - -- -- - - - --- - - उपरोक्त मतों से स्पष्ट है कि दीनालाही के विषय में परस्पर विरोधी मत और विचार प्रकट किये गये है स्मिथ तथा लॉरेन्स विनयान ने दीनहलानी की कटु आलोचना की है उनके मतानुसार अकबर अपनी पूजा कराने वाला खुशामदी व्यक्ति था । अत : उसने इस नवीन धर्म का प्रचार किया । जिससे कि वह ईश्वर का इत बालाया जा सके । इसके अलावा राजसत्ता, अधिकार, धन सम्पन्नता और ऐश्वर्य ने अकबर का सिर फेर दिया था, इस लिये उसने एका नवीन सम्प्रदाय की स्थापना की और अपने को उसका गुरु अथवा पैगम्बर कहाँ । उसने धर्म और राजनीति दोनों को मिटा दिया । इस लिये वह काफल रहा और दीन रुपी दा अन्त निराशाशतक दुआ । इन मों का खण्डहन आधुनिक भारतीय इतिहासकारों ने किया है जिनमें स्स. आर. मा अथा ए. एल. श्रीवास्तव प्रमुख है। उनके मतानुसार अकबर बहुत ही विनीत तथा निराभिमानी पुरुण था और दीन इलाही की स्थापना उसने ठापने आडम्बर की संतुष्टि के लिये नहीं की थी । दीन इलाही की स्थापना के पीछे अबाबर का उद्देश्य लोगों में अपने अधीन किसी सम्प्रदाय के चंगुल में फंसाने का नहीं था । वह साम्राज्य सत्ता प्राप्ति के साथ साथ, पोप, सलीफा अथवा पैगम्बर ननने की कोई महत्वाकांपा मी नहीं रखता था । वा' दीनबहस ही के द्वारा मिथया प्रकार की संतुष्टि मी नही करना चाहता था । और न ही वह अपनी अनुपम प्रशंसा या देवतुल्य पजा का इच्छुक था। आरूक नवीन धर्म स्थापित करके थी पूर्वतक जनने का लक्ष्य मी अकबर का नहीं था, क्योंकि यदि दीन लाही की स्थापना में लकवर के ये उद्देश्य होते तो वह इसके प्रचार के लिये राज्य के सभी अधिकारी, शक्तियाँ, और साधना का अधिकतम उपयोग करता परन्तु उसने ऐसा नहीं किया । For Private And Personal Use Only
SR No.020023
Book TitleAkbar ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherMaharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay
Publication Year1977
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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