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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अकबर की धार्मिक नीति 106 · * सम्प्रदाय के प्रधान पुरोहित थे जाता और उसे अपने इरादों की पवित्रता और सच्चाई के प्रति सहमत करता था । इसके बाद अबुल फजल इस व्यक्ति को अम्बर के पास ले जाकर उसका परिचय कराता और वह व्यक्ति अपनी पगड़ी अपने हाथ में लेकर, अपना सिर बादशाह के कदमों मैं रखता था । बादशाह उसे उठाता था, उसे सिर पर पगड़ी रखता और उसे शिस्त अथवा अपना स्वरूप प्रदान करता था जिस पर ईश्वर का नाम तथा" बल्लाहो अकबर खुदा होता था । यह बगूठी स्वस्तिक के आकार की होती थी । इस विधि का यह अभिप्राय था कि सम्राट ने उसे शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया है। शिष्य से यह आशा की जाती थी कि वह सम्राट के अनुकरण द्वारा अपना सुधार करेगा । तथा आवश्यकतानुसार सम्राट से मौखिक शिक्षा ग्रहण करेगा । दीनइलाही के सदस्य अपने गुरू और दीन इलाही के पैगम्बर सम्राट अकबर की सोने की रत्न जडित प्रतिमूर्ति को रेशम के टुकड़े में लपेट कर अपनी पगड़ी में रखते थे । दीन ही मैं दीक्षित व्यक्तियों को 1 पवित्र शस्त और पवित्र दृष्टि कभी भूल नहीं करती । इस पक्ति को बार बार दोहराते थे । यह दीक्षा समारोह रविवार के दिन होता An ** था, क्योंकि रविवार सूर्य का दिन माना जाता था । दीक्षा देकर शिष्य बनाने से अकबर का तात्पर्य उसे अपना अनुचर बनाना नही अपितु ईश्वर की सेवा में दीक्षित करना था । दीनलाही के सिद्धान्त : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीनालाही के सदस्यों को निम्नलिखित सिद्धान्तों अथवा गुणों का पालन करना पड़ता था । (१) जीवन में उदारता और दानशीलता का पालन करना । (२) सांसारिक इच्छाओं का परित्याग करना । Aim-1-Akbari Vol. I Trans, by H, Blochmann P. P. 174-75: For Private And Personal Use Only
SR No.020023
Book TitleAkbar ki Dharmik Niti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Jain
PublisherMaharani Lakshmibhai Kala evam Vanijya Mahavidyalay
Publication Year1977
Total Pages155
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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