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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रवाल जाति की उत्पत्ति की व्यवस्था की है, उसका यही रहस्य है । गण-राज्य के निवासी दूसरे लोगों को अपने राज्य में निवास करने की अनुमति देने पर भी उन्हें वे अधिकार व हैसियत नहीं देते थे, जो शुद्ध जाति के लोगों की होती थी। इन गण राज्यों में कुछ उसी ढंग का वातावरण होता था, जो बाद की जात-बिरादरियों में दिखाई देता है । शाक्य लोग वृजियों से भिन्न थे, वृजि मद्रों से। सब दूसरों की अपेक्षा अपने को कुलीन समझते थे। सबका अपना अपना 'स्वधर्म' होता था। अपनी अपनी प्रथाओं, रीति रिवाजों आदि का सब भली भांति पालन करते थे। सब के अपने अपने देवता भी पृथक् पृथक् होते थे। एक सामान्य पूजा विधि व धर्म के अतिरिक्त विविध गणों की अपनी अपनी विशिष्ट पूजा विधि तथा आचार विचार थे। सब के पृथक् नगरपाल, दिग्पाल तथा कुलदेवता थे। इन विशिष्टताओं को बहुत महत्व दिया जाता था। इनके पालन में सब बड़ी व्यग्रता के साथ तत्पर रहते थे। (२) जब भारत में बड़े साम्राज्यों का विकास हुवा, तब भी बहुत से गण राज्य अधीनस्थ रूप में जारी रहे । भारत के सम्राटों ने इन्हें मूलतः नष्ट कर देने का उद्योग नहीं किया। स्वतन्त्रता नष्ट हो जाने पर भी इनकी अधीनस्थ सत्ता कायम रही। भारत के साम्राज्यों में सब से मुख्य और पुराना साम्राज्य मगध का था। मगध के मौर्य सम्राटों की इन राज्यों के प्रति क्या नीति थी, इसका परिचय कौटलीय अर्थशास्त्र से मिलता है । वहां लिखा है For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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