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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रवाल-जाति सैयद-बन्धुओं की उन्नति के साथ साथ रतनचन्द का भी महत्व बढ़ता गया और एक दिन वे दीवान के उच्च पद पर पहुंच गये। मुसलमानों से अधिक मेल जोल होने के कारण राजा रतनचन्द के रहन-सहन का ढंग पुराने ढरे के अग्रवालों को पसन्द न था। उन्होंने रतनचन्द को जाति से बहिष्कृत कर दिया । राजा रतनचन्द बड़ा प्रतापी और साहसी पुरुष था । उसने अपने कुछ साथियों के साथ अपनी पृथक् बिरादरी बना ली, जो राजा रतनचन्द के नाम से ही 'राजा की बिरादरी' या 'राजाशाही' कहाई । राजाशाही अग्रवाल मुख्यतया मुजफ्फरनगर तथा उसके आसपास के जिलों में ही पाये जाते हैं । अन्य जिन स्थानों पर वे हैं, वे इसी प्रदेश से गये हैं। राजाशाही अग्रवालों पर मुसलिम संपर्क का प्रभाव अब तक भी विद्यमान है। वे मुख्यतया उर्दू व फारसी पढ़ते हैं, और व्यापार की अपेक्षा सरकारी नौकरी में अधिक रुचि रखते हैं। उनके पहरावे तक पर मुसलिम संपर्क का असर है। राजाशाहियों की पृथक् बिरादरी बने दो सदी के लगभग ही समय हुआ है, पर इस थोड़े से काल में ही वे अन्य अग्रवालों से पृथक् से हो गये हैं। ___आज कल अग्रवालों में यह प्रवृत्ति है, कि इन भेदों को भुला कर जातीय एकता की स्थापना करें। मारवाड़ी व देशवाली, सनातनी हिन्दू व जैन-इन भेदों का क्रियात्मक दृष्टि से कोई विशेष महत्व नहीं है । पर बीसा और दस्सा तथा राजाशाही का भेद अधिक गहरा है। आजकल जो लोग दस्सा कहे जाते हैं, उनके विषय में यह नहीं बताया जा सकता, कि उनमें यदि कभी रक्त-शुद्धि में फर्क हुआ, तो For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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