SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २०३ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरु चरितम् सम्मतिं धर्मानुगाम् ॥६५ ग्लानिरुत्थिता ॥६६ समागतौ । यत्र वृन्दकः ॥६७ दर्शकानामृषीणाञ्च विदुषां अग्रसेन श्रयाते मंडपा हि जयध्वनैः I गुञ्जायमान्नो ह्यभवत् सर्वे हर्ष प्रचक्रिरे ॥६८ पण्डितानां समादेशात् राजा पीठमुपाविशत् ॥६६ अग्रसेनेन गोः शिष्य शूरसेनेन वै पुनः कन्याश्चैव सुताश्चैव यागे प्रस्थापिताः स्वयम् || १०० शूरसेनोऽग्रसेनस्य श्रुत्वा वै तस्य मनसि हिंसाता सहोदरौ राजप्रासादात् यज्ञभूमि 1 चाहिये । मेरा वचन तुम्हें मानना चाहिये, और यह प्रतिज्ञा करनी चाहिये, कि हमारे वंश में कोई भी हिंसा कर्म न करे । ९२-९५ अग्रसेन की धर्मानुकूल सम्मति सुन कर शूरसेन के मन में भी हिंसा के प्रति ग्लानि हो गई। दोनों भाई राजमहल से यज्ञभूमि को आये । वहां दर्शक, ऋषि, मुनि और विद्वानों का बड़ा भारी समूह उपस्थित था । ९६-९७ अग्रसेन के आने पर सारा यज्ञ मण्डप जय ध्वनियों से गूंज उठा । सब लोगों ने हर्ष प्रगट किया । ९८ पण्डितों के निर्देश पर राजा पीठ पर बैठ गया । ९९ हे शिष्य ! तब अग्रसेन और शूरसेन ने अपनी सब कन्याओं तथा पुत्रों को यज्ञ में बुलाये । १०० For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy